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गोम्मटसार ।
सोलहका भाग प्रकृतविरलन राशि ६४ में दिया, इससे चारकी संख्या लब्ध आई इसलिये चार जगह पर पण्णट्ठीको रखकर परस्पर गुणा करनेसे प्रकृतधन होता है । इस ही प्रकार अर्थसंदृष्टिमें जब इतनी जगह ( अर्धच्छेदों की राशिप्रमाण ) दूआ माड़ि परस्पर गुणा करनेसे इतनी राशि उत्पन्न होती है तब इतनी जगह ( आगेकी राशिके अर्धच्छेदप्रमाण) दुआ माड़ परस्पर गुणा करनेसे कितनी राशि उत्पन्न होगी ? इस प्रकार उक्त क्रमसे त्रैराशिक विधान करनेपर पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तर राशि असंख्यात लोकगुणी सिद्ध होती है ।
इति कायमार्गणाधिकारः
योगमार्गणा क्रमप्राप्त है इसलिये प्रथम ही योगका सामान्य लक्षण कहते हैं ।
पुग्गल विवाइदेोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स ।
जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ २१५ ॥
पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचनकाययुक्तस्य ।
जीवस्य या हि शक्तिः कर्मागमकारणं योगः ॥ २१५ ॥
अर्थ — पुद्गलविपाकिशरीरनामकर्मके उदयसे मन वचन कायसे युक्त जीवकी जो कर्मोंके ग्रहण करनेमें कारणभूत शक्ति है उस ही को योग कहते हैं । भावार्थ - आत्माकी अनन्त शक्तियोंमेंसे एक योग शक्ति भी है । उसके दो भेद हैं, एक भावयोग दूसरा द्रव्ययोग । पुद्गलविपाकी आङ्गोपाङ्गनामकर्म और शरीरनामकर्मके उदयसे, मनो वचन काय पर्याप्त जिसकी पूर्ण हो चुकी हैं और जो मनोवाक्कायवर्गणाका अवलम्बन रखता है ऐसे संसारी जीवकी जो समस्त प्रदेशों में रहनेवाली कर्मों के ग्रहण करनेमें करणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं । और इस ही प्रकारके जीवके प्रदेशोंका जो परिस्पन्द है। उसको द्रव्ययोग कहते हैं। यहां पर कर्मशब्द उपलक्षण है इसलिये कर्म और नोकर्म दोनोंको ग्रहण करनेवाला योग होता है ऐसा समझना चाहिये ।
योगविशेषका लक्षण कहते हैं ।
मणवयणाणपत्ती सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु ।
तण्णामं होदि तदा तेहि दु जोगा हु तज्जोगा ॥ २१६ ॥
मनोवचनयोः प्रवृत्तयः सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु ।
तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगात् हि तद्योगाः ॥ २१६ ॥
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अर्थ — सत्य असत्य उभय अनुभय इन चार प्रकार के पदार्थोंमेंसे जिस पदार्थको जानने या कहनेकेलिये जीवके मन वचनकी प्रवृत्ति होती है उस समय में मन और वच