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________________ कुछ निबन्ध और दो ग्रन्थ । थोड़े दिन बाद मिलने ' पारलियामेंटके सुधारसम्बधी विचार " नामक निबन्ध लिखकर प्रकाशित किया। इसमें उसने इस बातपर विचार किया है कि गुप्त रीतिसे मत (वोट) देनेकी चाल अच्छी नहीं है और जिन्हें थोड़े वोट मिले ऐसे भी कुछ प्रतिनिधि पारलियामेंटमें रहने चाहिए। इसके पीछे उसने मासिक पत्रोंमें कुछ निबन्ध लिखे और अपने पहलेके लिखे हुए कुछ निबन्धोंको पुस्तकाकार प्रकाशित कराया । फिर १८६० और १८६१ में उसने दो ग्रन्थ और तैयार किये । पहला 'प्रतिनिधिसत्ताक राज्यव्यवस्था ' और दूसरा 'स्त्रियोंकी परतन्त्रता'। पहला ग्रन्थ तत्काल ही छपकर प्रकाशित हो गया । उसमें इस नवीन मतका प्रतिपादन किया गया है कि प्रतिनिधियोंकी विराट्र सभामें कानून बनानेका योग्यता बिलकुल नहीं होती है। इस कामके लिए चुने हुए राजकार्य-चतुर विद्वानोंका एक — कमीशन ' रहना चाहिए और उनके निर्माण किये हुए कानूनोंको पास करने न करनेका काम प्रतिनिधि-सभाको देना चाहिए। दूसरा ग्रन्थ तत्काल ही प्रकाशित न होकर सन् १८६९ में प्रकाशित हुआ । क्योंकि पहले उसकी इच्छा थी कि उसमें समय समयपर संशोधन करके और उसे विशेष उपयोगी बनाकर प्रसिद्ध करूँगा । परन्तु पीछे वह वैसा न कर सका । इस ग्रन्थमें स्त्रीजातिकी परतन्त्रताका वड़ा ही हृदयद्रावक चित्र खींचा गया है आर यह बतलाया गया है कि स्त्री-जाति पुरुषजातिसे शारीरिक, मानसिक आदि किसी भी शक्तिमें न्यून नहीं है। उसमें हर तरहके श्रेष्ठसे श्रेष्ठ कार्य करनेकी योग्यता है । परन्तु पुरुषोंने अपनी चिरकालीन स्वार्थपरताके कारण उसे केवल अपनी सुखसामग्री बना रक्खा है । पुरुषोंको अब सदयहृदय होकर इस स्वार्थ
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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