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प्रवचनकार मुनिश्री मिश्रीमलजी सचमुच मिश्री' की भाति ही एक 'कठोर-मधुर' जीवन के प्रतीक है। उनके नाम के पूर्व 'मरुधरकेसरी और कही-कहीं 'कडकमिश्री' विशेपणो का भी प्रयोग होता है-यह विशेषण उनके व्यक्तित्व के बाह्याभ्यन्तर रूप को दर्शाते हैं।
मिश्री की दो विशेषताएं है, मधुर तो वह है ही, उसका नाम लेते ही मुह में पानी छूट जाता है । किन्तु उसका बाह्य याकार वडा कठोर है यदि ढले की तरह उसको फेककर किसी के सिर में चोट की जाय तो खून भी आ सकता है। अर्थात् मधुरता के साथ वठोरता का एक विचित्र भाव-मिश्री' शब्द मे छिपा है। सचमुच ऐसा ही भाव क्या मुनिश्री के जीवन में नहीं है ?
उनका हृदय बहुत्त कोमल है, दयालु है। किसी को सकटगरत, दुखी व सतप्त देखकर मोम की भाँति उनका मन पिघल जाता है । मिश्री को मुट्ठी मे बद कर लेने से जसे वह पिघलने लगती है, वैसे ही मुनिश्री किसी को दुखी देखकर भीतर-ही-भीतर पिघलने लगते है, और करुणा-विगलित होकर अपने वरदहस्त से उसे आशीर्वाद देने तत्पर हो जाते हैं । जीव दया, मानव सेवा, साधमिवात्सल्य आदि के प्रसगो पर उनकी असीम मधुरता, कोमलता देखकर लगता है, मिश्री का माधुर्य भी यहा फीका पड़ जाता है।
उनका दूसरा रूप है-कठोरता । समाज व राष्ट्र के जीवन मे वे कही भी प्रप्टाचार देखते है, अनुशासनहीनता और साम्प्रदायिक द्वन्द्व, झगडे देखते हैं तो पत्थर से भी गहरी चोट वहा पर करते हैं । केसरी की तरह गर्जना करते हुए वे उन दुर्गुणो व बुराइयो को ध्वस्त करने के लिए कमर कस कर खड़े हो जाते हैं ! समाज मे जहा-तहा साप्रदायिक तनाव, विरोध और आपस के झगड़े होते हैं-वहा प्राय मरुधरकेसरी जी के प्रवचनो की कड़ी चोट पडती है, और वे उनका अन्त करके ही दम लेते हैं ।
लगभग अस्सी वर्ष के महास्थविर मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज के हृदय मे समाज व सध की उन्नति, अभ्युदय और एकता व सगठन की तीन तडप है।