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आर्यपुरुष कौन ?
२६५ भाइयो, पहिले के लोगों को अपने बड़े से भी बड़े पद का कोई अभिमान नही होता था । मुनिसंघ के अधिपति भी जब किसी राजा के प्रदेश मे विहार करना चाहते थे, तब पहिले राजा की आज्ञा प्राप्त कर लेते थे, तभी उसके राज्य में विहार करते थे और यदि किसी देश के राजा का मरण हो जाता था अथवा और कोई रीति-भीति का उपद्रव होता था तो वे विहार नहीं करते थे । आज के समान पहिले भारतवर्ष में सर्वत्र जाने-आने के लिए राजमार्ग नहीं थे, अतः साधु-सन्त भी माहूकारों और व्यापारियों के संघ के साथ ही एक देश से दूसरे देश में विहार करते थे।
हा, तो धन्नावह सेठ से जब धर्मघोप आचार्य ने उनके साथ चलने की वात कही और पूछा कि आपको कोई कष्ट तो नही होगा ? तब वह अति हर्पित होकर बोला-भगवन्, यह तो मेरे परम सौभाग्य की बात है कि कल्पवृक्ष भी हमारे साथ चल रहा है । आपके साथ रहने से तो हमारी सभी विघ्न-बाधाएं दूर होगी और हमे धर्म का लाभ भी मिलता रहेगा। हमे आपके साथ रहने मे क्या ऐतराज हो सकता है। आप सर्व संघ-परिवार को लेकर हमारे सघ के साथ विहार कीजिए । यह कहकर उसने चलने का दिन-मुहर्त आदि सब बतला दिया । यथासमय सेठ अपने सार्थवाहो के साथ रवाना हुआ और आचार्य भी अपने संघ-परिवार के साथ कुछ अन्तराल से चलने लगे? जहा पर रात हो जाती और सेठ का पड़ाव लगता, बही थोड़ी दूर पर वृक्षो के नीचे प्रासुक भूमि देखकर आचार्य भी अपने संघ-परिवार के साथ ठहर जाते ? इस प्रकार चलते-चलते मार्ग में ही चौमासा आगया । आपाढ़ का मास था और पानी बरसना प्रारम्भ हो गया, तब सेठ ने अपने साथियों से कहाभाइयो, अब वर्षा काल में आगे चलना ठीक नहीं है । इस समय अनेक छोटे छोटे सम्मूर्छन जीव पैदा हो जाते है, सर्वत्र घास आदि उग आती है, इससे चलने पर उन असस्य जीवो की विराधना होगी, वाहनो मे जुते बैलों को भी और हमें अपने आपको भी कष्ट होगा, तथा अपना माल भी खराब हो जायगा । अत यही किसी ऊचे और ऊसर भू भाग पर हमे अपना पड़ाव लगा देना चाहिए और शान्तिपूर्वक चौमासा विताना चाहिए।
भाइयो, पहिले चौमासे मे गृहस्थ लोग भी आना-जाना बन्द कर देते थे और एक जगह ठहर कर धर्म-साधन करते थे। उन्हे भी जीव-विराधना का विचार रहता था और असावद्य या अल्प सावध के ही व्यापार करते थे । आज तो इन सब बातो का किसी को कुछ भी विचार ही नहीं रहा है और चीमासे में भी व्यापार के लिए मोटर-ट्रक आदि दौड़ाते फिरते है और महा आरम्भ