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प्रवचन-मुधा
और दिन-रात वडती ही जाती थी । भाई, जब अन्तराय टूटती है, तव लक्ष्मी के वढने का कोई ठिकाना नहीं रहता। एक बार उसके मन में विचार माया कि मेरे धन तो बहुत बढ़ गया है, अब मुझे अपने भीतर नद्गुण भी बढाना चाहिने । इसके लिए आवश्यक है कि मैं दूसरो से सद्गुण लू और दूसरो को अपने धन मे से साज्ञ दू ? यह विचार कर वह उत्तम वस्तुओ की भेंट लेकर राजा के पास गया और भेंट समर्पण करके नमस्कार किया । राजा ने उन का अभिवादन करते हुए उचित स्थान पर बैठाया । सेठ ने कहामहागज, मेरा विचार व्यापार के लिये वाहिर जाने का है। यदि कोई भाई व्यापार के लिए मेरे साथ चलना चाहे तो चल सकता है । मैं उसे साथ मे ले जाऊगा और उसके खान-पान का सारा खर्च मैं उठाऊंगा । तथा व्यापार के लिए जितनी पू जी की जरूरत होगी, वह मैं दूगा । व्यापार में जो लाभ होगा, वह उसका होगा । और यदि नुकसान होगा, तो वह मेरा होगा। आप सारे नगर मे घोषणा करा दीजिए कि जो भी मरे साथ चलना चाहे वे साथ चलने के लिए तैयार हो जावें और अपने नाम लिखा देवे । उसने यह भी घोपित करा दिया कि मैं जो यह व्यापार के लिए सुविधा दे रहा हू, वह काई दान समझ करके नहीं दे रहा है। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की मेरे घर मे सीर हैं। वह मुझे अपना ही समझ करके मेरे साथ चले । घोषणा सुनकर के भनेर व्यक्ति चलने के लिए तैयार हो गये और उन्होने सेठ के पास जाकर अपने-अपने नाम लिखा दिये । यात्रा के लिए प्रस्थान के शुभ मुहूर्त की घोषणा कग दो गई और सब लोगों ने अपने अपने डरे नगर के बाहिर लगा दिये । गजा की ओर न भी चौकीपहरे का प्रबन्ध कर दिया गया। तथा आगे के लिए भी आदेश भेज दिये गये कि मेरा सेठ आरहा है, उसके जान-माल की रक्षा की जावे और उसे जिन वस्तु की आवश्यकता हो उसे राज्य की ओर से पूग किया जाये।
इम प्रकार जव चलने की तैयारी सब प्रकार से पूरी हा गई, तभी श्री धर्मघोप नाम के आचार्य भी ५०० मुनियों के परिवार के मान वहा पधार । उन्होन भी उमी दश में विहार करन क लिए कह दिया था परन्तु मार्ग विस्ट या अन उमे पार करन वे लिए किसी बडे सार्थवाह के भाव की कावश्यता की। उन्ह यह ज्ञात हा कि वन्नावह सेठ मी उसी देश की भोर व्यापार करने के लिए जा रहा है, तो आचार्य महाराज ने सेठ के पास जारर अपना अभिप्राय रहा कि हम लोग भी आपके साथ उनी देण की ओर चलना चाहत हैं।