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जान की भक्ति
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लोगों को ज्ञात है कि ब्राह्मणों में द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी और पाठक आदि अनेक जातियां हैं । पहिले जो लोग दो, तीन या चार वेद के पाठी होते थे, वे ही इन पदवियों से पुकारे जाते हैं। मगर माज जिन्होंने वेदों को देखा भी नहीं हैं वे लोग इन पदवियों को धारण कर रहे है, सो वे समय पर विद्वत्समाज में हंसी के पात्र बनते हैं आजकल प्रायः देखने में आता है, पढ़े कुछ नहीं और नाम ज्ञानचंद । अध्ययन कुछ भी नहीं किया और बड़ी-बड़ी पदवियां पीछे लगाली । किन्तु इन पदवियों की सार्थकता तभी है जव उसके अनुकूल ज्ञान हो । नान की ही करामात है और उसी को ही पूज्यता प्राप्त होती है, जिसके भीतर ज्ञान प्राप्त होता है । ___ एक बार पीपाड़ में जैनियों की दूसरी सम्प्रदाय के आचार्य पधारे। यह सुनकर संतोकचंदजी स्वामी के पांच-सात विद्वान् शिष्य विना बुलाये ही आगये । जव उक्त आचार्यजी को यह ज्ञात हुआ तो उन्हें कुछ धक्का लगा और सोचा कि इन पडितों से बचकर रहना चाहिए। बहुत वचने पर भी एक दिन उनसे आचार्य के साथ आमना-सामना हो ही गया। उन्होंने पूछाआपकी सम्प्रदाय में तो अनेक भेद हैं और सबकी समाचारी भी भिन्न-भिन्न है, फिर आप लोग यहां इकट्ठे कैसे हो गये ? तब उन विद्वानों ने कहायदि किसी के दस-पाँच बेटे हों और अलग-अलग मी रहते हों। यदि किसी के घर में चोर आजावे तो क्या वे सब भाई उसे भगाने के लिए इकट्ठे होकर नही जायेंगे। भले ही हमारी समाचारी अलग-अलग है, फिर भी धर्म-वात्सल्य में तो समरसता और एकरूपता ही है । यह सुनकर आचार्य चुप हो गये और आगे शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं किया।
पंजाब में पार्वती सतीजी शेरनी के समान व्याख्यान में गरजती थीं और वहुत प्रभावक व्याख्यान देती थीं। बड़े-बड़े सन्तों की शक्ति नहीं थी, कि उनके सामने बोल जायें। एक बार आर्यसमाज के संस्थापक और वेदों के पारंगत स्वामी दयानन्द सरस्वती होशियारपुर गये । वहां पर उक्त सतीजी ने ईश्वरकर्तृत्व पर शास्त्रार्थ करने के लिए चेलेंज दिया और शास्त्रार्थ में उनको परास्त कर दिया। सारे पंजाब में उनकी धाक थी और अच्छे-अच्छे विद्वान उनका लोहा मानते थे।
अजमेर में पहिला साधु-सम्मेलन हुआ । पत्री रखी गई और निर्णय हुआ कि जो फैसला होगा, वह सोहनलालजी को मंजूर होगा। उनके प्रतिनिधि पूज्य काशीरामजी थे और पत्री-पार्टी की ओर से गणी उदयचन्दजी आदि चार १६