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प्रवचन-सुधा
भांति संचालन करने लगे। गरीव असहाय छात्रों के लिए उन्होंने छात्रालय और भोजनालय भी खोले और योग्य अध्यापकों को जीविका से निश्चिन्त कर पठन-पाठन की व्यवस्था भी करके ज्ञान का समुचित प्रचार करते हुए स्वयं भी जानाभ्यास करने लगे। यथासमय संथारा पूर्वक मरण करके वे देवलोक में उत्पन्न हुए और अब वे वहां से आकर और मनुप्य जन्म धारण करके तथा संयम को पालन करके मोक्ष को जायेंगे ।
भाइयो, इस प्रकार से यह ज्ञान पंचमी का तप प्रचलित हुआ है। आज जिनको सर्व प्रकार की सुविधा है और शरीर में कोई रोग नहीं है, बे पुरुष यदि ज्ञान की आराधना करेंगे, असहाय विद्यार्थियों को पढ़ने-पढ़ाने में सहायता देगे, ज्ञान की संस्थाएं खोलेंगे और ज्ञान का प्रचार करेगे तो वे इस भव में यश को प्राप्त करेंगे और परभव में ज्ञान और सुख को प्राप्त करेंगे। इसलिए भाइयो, अपने द्रव्य का सदुपयोग करके ज्ञान की गंगा बहाओ। ये धन-दौलत सब यही पड़ी रह जावेगी। यदि सज्ञान का उपार्जन कर लोगे तो यही साथ जावेगी । कहा भी है--
धन समाज गज राज तो साथ न जाव । ज्ञान आपका रूप, भये थिर अचल रहावे॥ तास ज्ञान को कारण स्व-पर विवेक वखानो।
कोटि उपाय बनाय, भव्य, ताको उर आनो । ज्ञान यात्मा का स्वरूप है, यदि वह एक बार भी प्रकट हो जाये. तो सदा स्थिर-अचल रहता है । इसलिए कोटि-कोटि उपाय करके हे भव्य पुरुषो! इस स्व-पर विवेकी ज्ञान की आराधना करो। तभी तुम्हारा जन्म , सफल होगा!
विना पढ़े ही ज्ञानचंद जिसके पास ज्ञान है, वही ज्ञानी और पडित कहलाता है। कुल-परंपरा से प्राप्त पद से कोई पंडित, आचार्य या उपाध्याय कहा जाता हैं तो समय पर लोक में हंसी का ही पात्र होता है। एक बार उपाचार्य श्री गणेशीलालजी के पास एक पंडित आया। उन्होने उससे नाम पूछा तो उसने कहा- मेरा नाम बालकृष्ण उपाध्याय है। उन्होंने पूछा - आप कहां क्या पढ़ाते हैं ? वह बोलामैं न पड़ा ही हूं और न कही पढ़ाता ही हूं। फिर आप उपाध्याय कैसे हो? तो कहा कि हमारी जाति ही उपाध्याय कहलाती है। हमारे पूर्वजों में कोई पढ़ाने वाला हुआ होगा, उससे हम लोग उपाध्याय कहलाते है। भाई, आप