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प्रवचन-सुधा उत्तीर्णता प्राप्त कर ली तो सदा के लिए अविनश्वर मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त हो जायगी । क्योकि ज्ञानियो ने कहा है कि
यह मानुष पर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवाणी,
इह विधि गये, न मिले सुमणि ज्यो उदधि-समानी । यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल और जिनवाणी के सुनने का उत्तम अवसर यदि यो ही खो दिया और आत्म-हित नहीं किया तो फिर इनका पुन पाना वैसा ही है जैसा कि समुद्र मे गिरी हुई मणि का पाना दुर्लभ है । इसलिए ज्ञानी जन पुकार पुकार करके कहते हैं कि
तातें जिनवर--कथित तत्त्व अभ्यास करीजे, सशय विभ्रम मोह त्यागि आपौ लख लीजे ।। ज्ञान समान न आन जगत मे सुख को कारण,
यह परमामृत, जन्म-जरा-मृति रोग निवारण ।। हे बन्धुओ, इसलिए अव प्रमाद को छोडकर भगवद्-भाषित तत्त्वो का अभ्यास करो और सशय, विभ्रम, मोह, प्रमाद, विषय और कपाय आदि दुवो को छोडकर अपने आपका स्वरूप पहिचानो, अपने आपका ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान के समान जगत मे अन्य कोई भी वस्तु सुख का कारण नही है और यह ज्ञान ही अनादि काल से लगे हुए जन्म, जरा और मरणरूपी महारोगो के नाश करने के लिए परम अमृत के समान है। जैसे आप लोग इस लौकिक व्यापार के समय अन्य सव भूल जाते है, उसी प्रकार आत्मिक व्यापार के समय अन्य सबको भी भलाना पड़ेगा।
भाइयो, जरा विचार तो करो-जिस धर्म के प्रसाद से, भगवान् के जिन वचनो के प्रताप से आज आप लोग आनन्द भोग रहे हैं तो घटे-दो घटे उसको भी तो याद करना चाहिए। यदि घर की उलझनो से निकल कर के यहा घडी दो घडी को माये हो, तो फिर उतने भी समय मे प्रमाद क्यो ? बाते क्यो और नीद क्यो ? यदि कोई बाते करता भी है तो उधर से उपयोग हटाकर आत्महितपी अपना उपयोग व्यारयान सुनने सामायिक करने और आत्म-चिन्तन करने में ही लगता है। जो कुशल श्रावक होते हैं वे लौकिक कार्यों के साथ परमार्थिक कार्य को भी साधने मे सावधान रहते है ।
और अपनी-चर्या ऐसी बनाते हैं कि जिससे उनकी गाडी ठीक सुमार्ग पर विना किसी विघ्न-बाधा के चलती रहती है। कहा भी है
जैसे नाव हलको थको, परले पार ले जाय । त्यो ज्ञानी सन्तोष से, सद्-गति मे पहुचाय ॥