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आत्मलक्ष्य की सिद्धि
१६३ भाषाओं की खिचड़ी बनायेंगे तो किसी में भी आप पारंगत नहीं हो सकेंगे। उस समय उनकी बात मुझे कुछ बुरी सी लगी और मैंने अपनी पढ़ाई का क्रम पूर्ववत् ही चालू रखा । बीस-पच्चीस दित के वाद समझ में आया कि उनका कहना ठीक है । क्योंकि जब मैं एक विषय की ओर अधिक ध्यान देता तो दूसरे विपय में कच्चावट रह जाती है। तब किसी की यह उक्ति याद आई।
“एक हि साधे सव सधै, सब सावे सब जाय ।' इसलिए हम जो काम रह रहे हों, उसमें ही हमें तन-मन और धन से जुट जाना चाहिए, ताकि चाल काम मे प्रगति हो । आप दुकान पर बैठे-बैठे चाहें कि एक साथ में रोकड़ भी मिला लूं, आने-जाने वालों से बातें भी करता रहूं और पुस्तक भी पढ़ता रहूं ? तो क्या ये सव काम एक साथ कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं। भले ही आपका दिमाग कितना ही तेज क्यों न हो । यदि दिमाग तेज है तो एक ही विषय की ओर लगाइये, आपको अपूर्व सफलता प्राप्त होगी। मुझे इस समय शतावधानी रत्नचन्द्र जी महाराज की याद मा रही है, उनकी बुद्धि बड़ी तेज और स्मरणशक्ति बड़ी प्रवल थी । वे व्याख्यान देते हुए बीच-बीच में किये जाने वाले प्रश्नों को हृदयंगम करते जाते थे और अन्त में क्रमवार उनका उत्तर देते थे। उनके इस चमत्कार का रहस्य यह था कि वे व्याख्यान देते हुए भी प्रश्नों को अवधारण करने की ओर ही उपयुक्त रहते थे और किये जानेवाले प्रश्नों को अपने मस्तक की पट्टी पर क्रमवार अंकित करते जाते थे। व्याख्यान देते हए भी उनका ध्यान प्रश्नों को अपने भीतर अंकित करने की ओर ही लगा रहता था। इसी प्रकार जिस व्यक्ति का ध्यान सांसारिक कार्यों को उदासीनभाव से करते हुए भी आत्मा की ओर रहेगा, वह अवश्य ही आत्म-सिद्धि को प्राप्त कर लेगा । आत्म-सिद्धि की प्राप्ति का उपाय बतलाते हुए पूज्यपाद स्वामी ने कहा है.---
आत्मज्ञानात्पर कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् ।
कुर्यादर्थवशात् किचिद्वाक्कायाभ्यामतत्पर । अर्थात्-~-आत्महितपी पुरुष को चाहिए कि वह आत्मज्ञान के सिवाय अन्य कार्य को अपनी बुद्धि मे अधिक समय तक धारण न करे। यदि कार्य वशात् वचन से बोलना और काय से कुछ कार्य करना भी पड़े तो उसमें मतत्पर अनासक्त रहते हुए ही करे। भाई, आत्मसिद्धि की कुंची तो यह है। जब तक मनुष्य सांसारिक कार्यों की ओर से अपनी चित्तवृत्ति को नहीं