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प्रवचन-सुधा
पर-सुख देखी जो जरे, ताको कहां आराम ।
पर-दुख देखी दुख लहै, सौ है आतमराम ॥ यदि अपना हृदय शान्त है—स्थिर है तो कोई कैसा भी व्यक्ति मिल जाय, तो भी उसका कुछ भी विगाड़ नहीं कर सकता है। परन्तु जिस व्यक्ति का हृदय स्थिर नहीं है वह जहां भी जायगा, वहां के वातावरण से प्रभावित होकर अपना ध्येय भूल जायगा और दूसरे के तत्त्व को ग्रहण कर लेगा। जैसे कोई साधारण दुकानदार किसी बड़ी कम्पनी में गया, वहां पर अनेक व्यक्ति अपना-अपना काम कर रहे हैं, उत्तम फर्नीचर सजा हुआ है, आने और जाने के मार्ग भी अलग-अलग हैं । कम्पनी के ऐसे ठाठ-बाट को देखकर वह दुकानदार प्रभावित हुआ और विचारने लगा कि मैं भी अपनी दुकान को उठाकर ऐसी ही कम्पनी खोलूंगा और ठाठ से कमाई करूंगा। पर उसे यह पता ही नहीं है कि कम्पनी खोलने के लिए कितने साधन इकट्ठे करने पड़ते हैं, कितना दिमाग लगाना पड़ता है और कितनी पुजी की आवश्यकता होती है ? तो भाई, बताओ क्या अपने विचार को सफल कर सकता है? कभी नहीं ? पर यदि वह अपनी दुकानदारी को बढ़ावे, उसे तरक्की दे और दिमाग से काम करे तो एक दिन उसकी वह दुकान ही बड़ी कम्पनी बन जायगी। जहां बड़े पैमाने पर काम होता है, उसे कम्पनी कहते हैं और जहां छोटे रूप में काम होता है उसे दुकान कहते है। अपना कारोवार घटाना और बढ़ाना अपने ही हाथ में है। जब तक मनुष्य इस उन्नति और अवनति के मूल सिद्धान्त को ध्यान में नहीं लेता है, तब तक वह अपने उद्देश्य में सफलता नहीं पा सकता है। जो दुनिया की बातों को देखकर केवल मनसूबे बांधता रहता है, करताधरता कुछ नहीं है और व्यर्थ में समय व्यतीत करता है, वह कैसे अपनी उन्नति कर सकता है।
एक लक्ष्य निश्चित करो! भाइयो, मैं अपनी ही बात सुनाऊँ, चालीस-पैतालीस वर्ष पहिले जब मैं संस्कृत और प्राकृत का अध्ययन कर रहा था, तव मन में यह उमंग उठी कि साथ में अंग्रेजी और उर्दू का भी अभ्यास किया जाय । यह सोचकर मैंने उनका भी पढ़ना प्रारम्भ कर दिया । एक दिन एक पंडित जी आये और मुझे चार भाषामों का एक साथ अभ्यास करते देखकर बोले-महाराज, आप यह क्या कर रहे हैं ? मैंने कहा-..-पढ़ाई कर रहा हूं। वे बोले- यद्यपि आपका दिमाग तेज है, तथापि मेरी राय हैं कि आप एक-एक विषय को लीजिए । एक में अच्छी गति हो जाने पर दूसरे विषय को लीजिए । यदि एक साथ ही सव