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रूपचतुर्दशी अर्थात् स्वरूपदर्शन
जाता है, तब सर्व प्रकार की बाधाओं से रहित निराकुलता मय अव्यावाध सुख ही सुख रहता है। इसलिए विनयचन्द जी कहते है कि हे प्राणी ! तू इन सव से दूर रह ।
जब यह आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, तब वह शुद्ध-बुद्ध होकर सिद्ध कहलाने लगता है। तत्पश्चात् वह अनन्तकाल तक अपने स्वरूप में वर्तमान रहता हुआ आत्मिक सुख को भोगता रहता है । वही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है और उस स्वरूप को प्राप्त व्यक्ति ही सिद्ध परमात्मा कहलाते है। उनके विषय में कहा गया है कि---
ज्ञान-शरीरी त्रिविध कर्म-मल-वजित सिद्ध महंता ।
ते हैं अकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता ॥ इस प्रकार के सिद्ध स्वरूप को देखने का उपदेश आज के दिन भगवान महावीर ने दिया और बताया कि हे प्राणियो, तुम सब की आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्त गुण है, यही तुम्हारा शुद्ध स्वरूप है। आज तक संसार में बहत भटके और अपने स्वरूप को भूलकर अनन्त दुख भोगे । अव तो विषय-कषायो के चक्र में से निकलो और अपना रूप देखो। यह रूप चतुर्दशी हम सबको भगवान का यह पवित्र सन्देश आज भी सुना रही है ।
___ अपनी पहचान क्या है ? __ अब यहां आप पूछेगे कि अपने रूप की पहिचान कैसे हो? इसका उत्तर एक हप्टान्त से दिया जाता है --किसी धनाढ्य सेठ के एक फोड़ा हो गया । उसकी भयंकर वेदना से वे रात-दिन कराहते रहते । कितने ही उपचार किये, परन्तु जरा-सा भी कष्ट कम नही हुआ । अन्त में अति दुखित होकर मुनीम से वोले--मुझ से अब यह कष्ट सहन नहीं होता है, इसलिए विप का प्याला लाओ जिसे पीकर मैं इस दुःख से सदा के लिये छुट जाऊँ ? मुनीम बोलासेठ साहब, यह आप गजब की बात कह रहे है ? आप तो मरेंगे ही, और साथ में मुझे भी मरवायेंगे ? सेठ बोला-~~-क्या करू अब इसका काट नही सहा जाता है। मुनीम ने कहा..... सेठ साहब, जो शरीर धारण करता है, उसे उसके कष्ट भी सहन करना पड़ते हैं। फिर वीमारी हाथी बनकर आती है और कीड़ी बनकर जाती है । इसलिए धैर्यपूर्वक आप इसे सहन कीजिए। साता कर्म का उदय शान्ति होने पर यह कष्ट स्वयं दूर हो जायगा । जव असाता का उदय मन्द पड़ता है, तभी औषधि लाभ पहुंचाती है । यह कहकर