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प्रवचन-मुधा
संलग्न व्यक्ति को भी कोई पुछ भी क्यों न कहे, पर यह भी उगकी चिन्ता नहीं करता । यह तो यही सोचता है कि.----
मुझे है काम ईश्वर से तो दुनिया से है पया मतलब ! भाई, जिसे अपना काम करना है, तो वह दुनिया की परवाह नहीं करेगा। जो आत्म-स्वरूप में आया है, उसे भले ही सारा संगार पागल कहे, पर वह उसकी ओर ध्यान नहीं देगा । यथार्थ बात यह है कि संसार की दृष्टि में ज्ञानी पुरुप पागत दिनता है और ज्ञानी को सारा गंगार पागल-सा दिखता है । देखोयदि कहीं पर पाच पुरुप भांग छानकर पी रहे हों, उस समय यदि कोई उसका त्यागी व्यक्ति मा जाता है और उसे पीने के लिए कहने पर वह नहीं पीता है, तो उसे वे पीनेवाले लोग कहते हैं कि यह कना गुरडा पग है ? भले ही यह दुनिया के लिए पागल प्रतीत हो, पर वह अपने भीतर समझता है कि मैं ठीक मार्ग पर हूं । और यही कारण है कि वह दूमने के द्वारा कही गई किसी भी बात को बुरा नहीं मानता है । ___ लोग कहते है कि हमें सुख चाहिए। पर भाई, मुग्प की चाहुना करने वालों को दुःख सहने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । भर-पेट पाने की इच्छा रखने वालों को कभी भूख सहन करने के लिए भी तैयार हिना चाहिए । संमार की स्थिति ही ऐमी है कि जिस वस्तु की चाहना करोगे वह यदि मिल जायगी तो क्षणिक मुख का अनुभव होगा। और गदि वह नहीं मिली, या मिलकर विनष्ट हो गई तो दीर्घकान तक दुःख का अनुभव करना पडेगा। किन्तु जो अपनी आत्मिक निधि है, उसकी प्राप्ति होने के पश्चात् वह कभी अपने से विलग नहीं होती है, अतः कभी भी उसके वियोग-जनित दुःख का अनुभव नही करना पड़ता है। जो आत्म-स्वरूप के दर्शन कर लेता है, वह अपने मे ही मस्त रहता है और अपने में सन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति सदा मुखी ही रहता है । जो निजस्वरूप में आया है, उसकी फिर सारे सांसारिक पदार्थों पर से इच्छा निवृत्त हो जाती है, अत: उनके आने पर न उसे सुख होता है और न जाने पर दुःख ही होता है । वह तो सदा यही विचारता है कि
सुख-दुख, जीवन-मरण अवस्था, ये दस प्राण संघात रे प्राणी, इनसे भिन्न विनयचन्द रहियो, ज्यों जल से जलजात रे।
श्री महावीर नमों पर वाणी। भाइयो, विचार तो करो--ये सुख-दु.ख, हानि-लाभ, जीवन और मरण आत्मा के साथ है, या शरीर के साथ में है ? जहां तक शरीर का साथ रहता है, वहा तक ही ये राव साथ हैं। जब यह जीव इन दस प्राणो से अलग हो