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प्रवचन सुधा
गुरौभक्ति गुरी भक्ति गुरीभक्तिः सदाऽस्तु मे । संसार-वारणं
मोक्षकारणम् ||
चारित्र मेव मेरे हृदय मे गुरु के प्रति भक्ति सदा ही बनी रहे, सदा ही बनी रहे । क्योंकि उनके प्रताप और प्रमाद से ही भव्यजीवों के हृदय में चारित्र का भाव जागृत होता है । और यह चारित्र ही संसार का निवारण करनेवाला है और मोक्ष का कारण है ।
लोग कहते हैं कि अरिहन्त, सिद्ध बड़े हैं, तह्मा, विष्णु और महेश बड़े है | परन्तु उनका यह बड़प्पन किसने बताया क्या ? हमने उनको देखा है ? या उनसे बातचीत की है ? उनके गुणों को किसने बताया ? अरिहन्त और सिद्ध की पहिचान किसने बतलायी ? पंच परमेष्ठियों के गुण किसने बतलाये ? सवका उत्तर यही है कि गुरु के प्रसाद से ही यह सब जानकारी प्राप्त हुई है । यदि गुरु न होते तो संसार में सर्वत्र अन्धकार हो दृष्टिगोचर होता । इसलिए सबसे बड़ा पद गुरु का ही है । इसी कारण से श्री दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि
जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे तस्संतिए बेणइयं पउंजे ।
सक्कारए तस्सणं पंचरण कारण वाया मणसावि णिच्चं ॥ अर्थात् जिसके समीप धर्म के पदों को सीखे उसका सदा विनय करना चाहिए, उसको पंचांग नमस्कार करे और मन, वचन काया से उसका नित्य सत्कार करे ।
तीर्थंकर जैसे महापुरुप भी पूर्व भव में गुरु के प्रसाद से दर्शन-विशुद्धि आदि बोस बोलों की आराधना करके तीर्थकर नाम गोत्र का वध करते हैं । पुनः तीर्थकर बनकर जगत का उद्धार करते हुए मोक्ष को प्राप्त करते हैं । यह सब गुरुभक्ति का प्रसाद है । भाई, गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त
नहीं होता है ।
लोभ छोड़िए
वह लोभ का
तु
मनुष्य को अपनी उन्नति करने के लिए आवश्यक है कि परित्याग करे । धन के लोभ को ही लोभ नही कहते हैं, अपि मान-प्रतिष्ठा का मोह भी लोभ कहलाता है । परिवार की वृद्धि का लोभ भी लोभ है और किसी भी प्रकार को संग्रह-वृत्ति या लालसा को भी लोभ ही कहते हैं । मनुष्यों को शरीर का भी लोभ होता है कि यदि हम तपस्या करेंगे तो हमारा शरीर दुर्बल हो जायगा | भाई लोभ को पाप का बाप कहा जाता है । यह लोभ सर्व अवगुणों का भंडार है । और भी कहा है कि 'लोहो सब्ब विणासणी' अर्थात् लोभ सर्व गुणों का विनाशक है। लोभ से, इस परिग्रह के संचय की वृत्ति से मनुष्य क्या क्या अनर्थ नहीं करता है । किसी ने ठीक कहा है कि