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प्रवचन-मुधा
शास्त्रो में बताया गया है कि ६६६७५ कोडाफोडी तारे है। परन्तु उनमे क्या चन्द्र छिपता है ? नही छिपता । चन्द्र के प्रकाश का गामने दे गय टिम. टिमाते दृष्टि गोचर होते हैं। आकाश में मेध घटा कितनी भी छा जाय, परन्तु सूर्य का अस्तित्व नहीं छिपता है। यदि युद्ध की भेरी बजाने लगे तो असली राजपूत चुपचाप टहर नहीं सकता है, वह तुरन्त तैयार होकर और शस्त्रास्त्र ले कर युद्ध के मैदान में जा पहुचेगा । ऐसे समय उसका क्षनियत्व छिप नहीं सकता है । यदि याचका जन द्वार पर आकर याचना करे, तो दाता भी छिपता नहीं है । उसके कानो मे याचक के शन्द पहचे नही, नि वह तुरन्त आकर उस याचक की इच्छा पूरी करेगा । जिस स्नी ने लज्जा और शील को जलाञ्जलि दे दी और कुलीनता को पलीता लगा दिया । एमी चचल मनोवृत्ति वाली स्त्री भी छिपाए नही छिपेगी, उसके चचल नेन उसो हृदय की चचलता को प्रकट कर ही देंगे। कोई नीच व्यक्ति यदि कितने ही ऊंचे पद पर जाकर के बैठ जाय, परन्तु उसकी नीचता भी छिपी नहीं रहेगी। इसी प्रकार यदि कोई बदमाश या दुराचारी मनुष्य शरीर में भम्म लगा कर साधु का भेप भी धारण कर लेवे, परन्तु उसके भी कर्म छिपाये नहीं छिपेग । किन्तु जो सच्चे साधु है, जिन्होने ससार, देह और भोगो से विरक्त होकर साधुपना अगीकार किया है, उनके पास वाहिर मे कुछ भी नहीं होते हुए भी अन्तरग मे ऐसी शक्ति प्रगट होती है कि वह भी छिपाये नहीं छिपती है । वह जिधर से भी निकल जाता है, उसके त्याग और तपस्या का प्रभाव सब लोगो पर अपने आप पड़ता है और राजा-महाराजा लोग स्वय आकर उसके चरणो मे नम्रीभूत होते हैं । इसका कारण यह है कि उसके त्याग से प्रति ममय उत्तम भाग्य का निर्माण हो रहा है और पुरातन पाप कर्म निर्जीण हो रहे हैं । जिसका हृदय शुद्ध है, वह स्वयं भी आनन्द का उपयोग करता है और दूसरो को भी आनन्द प्रदान करता है। ऐसा साधु जहा भी जाता है, उसके प्रभाव से लोगो का अज्ञान-अन्धकार स्वय ही दूर होने लगता है। ऐसे ही गुरुजनो के लिए ससार नमस्कार करता है। जैसा कि कहा है -
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षु रुन्मीलित येन तस्मै श्रीगुरवेनम ॥
अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे वने पुरुषो के नेन जिसने अपने ज्ञान रूपी अजनशलाका से खोल दिए है, उस श्री गुरुदेव के लिए नमस्कार हो।