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समता और विषमता
भाइयो, आपके सामने दो धाराएँ वह रही हैं --- एक है सरल धारा और दूसरी है विषम धारा । सरल धारा में आनन्द हे और विपम धारा में कृष्ट और दु.ख है ! देखो----जो सीधा राजमार्ग जा रहा है, उस पर चलने में आप को कष्ट नही होता है। परन्तु जो विपम मार्ग है, टेड़ा-मेड़ा, ऊंचा-नीचा और कांटे वाली झाड़ियों से व्याप्त हैं, उस पर चलने में निरन्तर शंका वनी रहती है कि कहीं ठोकर न लग जाय, डाकू और लुटेरे न आ जायें, अथवा हिंसक जन्तु न मिल जाय । इसलिए हमें विषम धारा से दूर रहना और समघारा में प्रवेश करना चाहिए । व्याख्यान सुनने और शास्त्र-स्वाध्याय करने का भी खास उद्देश्य यही है कि हम पूर्ण आध्यात्मिक बनें और परम धाम को प्राप्त करें । परम धाम (मोक्ष) कब प्राप्त होगा, यह हमारे ध्यान में नही, वह तो सर्वज्ञ के ध्यान में है और किस व्यक्ति का कल्याण होगा, यह उनसे छिपा हुआ नहीं है। हाँ, अपन से छिपा हुआ है। परन्तु परम धाम का जो मार्ग और उसके प्राप्त करने के जो कर्तव्य भगवान ने बताये हैं और जो महापुरुष उस पर चल रहे है, वे उत्तम हैं, क्योंकि वे समधारा में चल रहे हैं।
समता की वृत्ति जीव के अनादिकाल से कर्मों का प्रसंग बन रहा है और उनके उदयवश क्रोध आ गया, तब उनके आते ही हमें विचार करना चाहिए कि हे आत्मन्, तूने ये कटुक वचन क्यों कहे, इतनी अनर्गल बातें क्यों कहीं ? हमें
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