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सर्वज्ञवचनों पर आस्था
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आपका जल पी लेने से मेरे प्राण निकलने से बचे और उसके बाद मेरे हृदय में विवेक जागत हुआ है. मेरा मन संसार से उद्विग्न हो गया है, अब मैं आपके पास दीक्षा लेकर आपके ही चरणों की भरण में रहना चाहता हूं । मुझे अत्यन्त दुःख है कि मेरा झूठा पानी आपके काम में आया होगा। इसके लिए मैं आप से क्षमा याचना करता हूं। लोग राजाजी की बातें सुनकर सोचने लगे-- तभी इधर का उधर और उधर का इधर असर हुआ है।
बन्धुओ, कहने का सारांश यह है कि भले-बुरे खान-पान का भी कैसा तत्काल असर पड़ता है, यह बात आप लोगों ने साधुजी और राजाजी की बदली हुई मनोवृत्ति से भली भांति जान ली है। मनुष्य के मन पर खान-पान और भली-बुरी संगति का अवश्य प्रभाव पड़ता है। धर्म और शासन के प्रेमी उन श्रावकों ने अपनी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता से साधु के गिरते हुए भावों को संभाल लिया ! परन्तु आज तो धर्मः शासन और समाज की सेवा नहीं है, सर्वत्र स्वार्थ की सेवा है ! स्वार्थ सधता है तो महाराज अच्छे हैं और यदि स्वार्थ की साधना नहीं होती है तो महाराज अच्छे नहीं है। आज धनिक श्रावक आते हैं तो कोई न कोई कामना लेकर के आते हैं कि महाराज का आशीर्वाद मिल जाय तो कामना पूरी हो जाय। आत्म कल्याण की भावना से कोई नहीं आता है। अरे भाई, महाराज ने साघुपता लिया है तो अपने लिए लिया है, पर आज के स्वार्थी भक्तों को इसकी चिन्ता नहीं है। उन्हें तो अपने स्वार्थ-साधने की ही चिन्ता है, फिर भले ही महाराज कल डूबते हों तो आज ही डूब जावें। भाई, ऐसे स्वार्थी भक्त सच्चे भक्त नहीं हैं, वे तो बगुला भक्त हैं । सच्चा भक्त श्रावक तो वही है जो कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और संयम की आराधना करनेवाला हो, धर्म और समाज की सेवा करनेवाला हो । आज यदि ऐसे भक्त मिलने लगें तो साधुओं को भी सहारा मिले । साधुओं का तो श्रावकों को सहारा मिलता ही रहता है। जहां पर साधु-सन्तों का आवागमन कम होता है, वहां पर धार्मिक प्रवृत्तियां भी कम होने लगती है और श्रावक भी अपने कर्तव्य को भूलने लगते हैं। साधु-सन्तों के आवागमन से श्रावकों के संस्कार पुनरुज्जीवित होते रहते हैं । उन्हें देखकर ही धार्मिक संस्थाएँ बनती हैं । और लोगों को भगवान की पवित्र वाणी को सुनने का सुअवसर मिलता है । सद्गुरु का सहयोग जीवन-निर्माण के लिए परम औषधि है। जब उत्तम और गुणकारी आपधि मिलती है, तब अनादि काल से लगे इन जन्म जरा और मरणरूपी महारोगों से मुक्ति मिलती है और अजर, अमर आनन्दमय परम पद प्राप्त होता है । वि० सं० २०२७ कार्तिक वदी ६
जोधपुर