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प्रवचन-सुधा
कह देते हैं 1 भगवान् की भापा अर्धमागधी है वह कितनी महत्त्वपूर्ण होती है कि सर्व श्रोताओं के संशय दूर हो जाते हैं और हृदय कमल खिल जाते हैं । कहा भी है
भाषा तो बड़ी बड़ी अर्धमागधी अक्षर मेल हे छन्द के । संशय ना रहे बोलतां उठे पर छन्द के ॥
अरिहंता दीपंता ए। भगवान की अर्धमागधी भाषा का यह महत्व है कि पढ़ते हुए ही उनका सार तुरन्त हृदयंगम हो जाता है। जो उस भाषा में प्रवीण बन जाय, तव तो किसी प्रकार की शंका को स्यान ही नहीं रहता है। भगवान की वाणी को सुनते ही सबको आनन्द प्राप्त होता है जैसे कि पनिहारी को सुनते ही सांप मस्त हो जाता है।
मन से निकली वाणी का असर आप लोग कहेंगे कि महाराज, आप हमको प्रतिदिन इतना सुनाते हैं, फिर भी हम लोगो के ऊपर असर क्यो नहीं होता है ? भाई, हम भी वैराग्य उधार मांगा हुआ लेते हैं। यदि हमारे भीतर वैराग्य होवे तो अवश्य असर पड़ेगा ! हा, पहिले के सन्तों की वाणी का अवश्य असर पड़ता था। ज्ञानी पुरुषों के वचनों में बड़ी ध्वनि निकलती है। उनकी वाणी सुनकर अनेक बड़े से बड़े दुराचारी, पापी भी पार हो गये। जिनके उद्धार की लोग कल्पना भी नहीं करते थे, उनका भी कल्याण हो गया।
पूज्य अजरामरजी स्वामी हो गये हैं। उनके शिष्य थे मूलचन्दजी स्वामी और धनराजजी स्वामी । धनराजजी का परिवार तो मारवाड़ में है और मूलचन्दजी का गुजरात में हैं। एक वार लीवड़ी में मूलचन्दजी महाराज ने भगवती सूत्र सुनाना प्रारम्भ किया । वहां के राजा ने दीवान से पूछा कि तेरे गुरु ने यहां पर चौमासा किया है। उसने उत्तर दिया- हा महाराज, किया है । राजा ने पूछा कि वे व्याख्यान में क्या वांचते हैं ? दीवान ने कहामहाराज, भगवती वाचते हैं। राजा ने कहा -हमारे गुरु तो भागवत वांचते हैं। इन दोनों में क्या फर्क हैं ? दीवान ने कहा-भगवती सर्वज्ञ देव की वाणी है । राजा वोला-क्या भगवती में ऐसी शक्ति है कि मैं ढूंठा रोपू तो उसमें फल लग जायें ? यदि के फल लग जावें तब तो भागवत से भगवती बड़ी है । अन्यथा नहीं । अब दीवान साहब क्या उत्तर देवें । जिसके आश्रित आजीविका हो, उसे यद्धान्तद्धा उत्तर भी तो नहीं दिया जा सकता । अतः