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श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत
जावे जिस विध रोग। तैसो ही ज्ञान धरोरी ॥२॥ अम कर्म चार कषाय । रोग असाध्य कह्योरी। मदन महा मुख देन । सब जग व्याप रह्योरी ॥३॥ तूं प्रनु पूरण बैद । त्रिजुवन जाच लह्योरी किरपा करो जगनाथ । अब अवकास थयोरी॥ ४॥ बचन पीयूष अनूप । मुफ मन माहि धरोरी दीजो पथ्य प्रदान । मन तन दाह होरी ॥५॥ सम्यग दर्शन ज्ञान । खमा मृदु सरल जलोरी ॥ तोष अवेद अनंग तो सहु रोग दल्यो री ॥६॥ पथ्योदन जिननक्ति । आतमराम रम्यो री तूगे मसि जिनसर । अरि दल दूर दम्यो री ॥७॥
॥ स्तवन बीजुं ॥
॥ श्रीराग ॥ मल्लिजिन दरसन नयनानंद ॥ टेक ॥
नील वरण तनु नविजन मोहे, वदन कमल निरमल सुखकंद । निर विकार दृग दयारस पूरे, चूरे नविजनक अघबंद ॥ म ॥ १॥ शुचि तनु कांति टरी अघ ब्रांति, मदन गर्यो तुम करम निकंद । जय जय निर्मल अघहर ज्योति, द्योति त्रिजुवन निर्मल चंद ॥ म ॥२॥