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२३४ श्रीयशोविजयोपाध्याय कृत-- गोरे, नवि दोषासंगोरे। मृगलंबन चंगो, तो पण तूं सही रे॥४॥तुज गुण कुण आखरे, जग केवली पाखे रे । सेवक जश नाखे, अचिरासुत जयो रे ॥५॥ श्रीकुंथुनाथ जिन स्तवन ।
(ढाल वीछियानी) .. सुखदायक साहिब सजिलो, मुजने तुमश्यु अति रंगरे । तुम्हे तो निरागी हुश रह्या, ए श्यो एकंगो टंगरे ॥ सु॥१॥ तुम्ह चित्तमां वसवू मुज घj, ते तो उंबर फूल समानरे। मुज चित्तमां वसहो जो तुम्हे, तो पाम्या नवे निधानरे ॥ सु ॥ ॥ श्रीकुंथुनाथ अम्ह निरवहुँ, श्म एकंगो पण नेहरे । इणि आकीने फल पामशें, वली होशे मुखनो बेहरे ॥सु॥३॥ आराध्यो कामित पूरवे, चिंतामणि पाषाणरे । वाचक जश कहे मुज दीजिये, श्मं जाणी कोमि कल्याणरे ॥ सु० ॥४॥
श्रीअरनाथ जिन स्तवन ।
( प्रथम गोवालनी, ए ढाल ) अरजिन दरिशन दीजियेंजी, नविक कमल