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________________ चाविशी। २११ विमणो नेह ॥ म ॥ ४ ॥ मोठं वेहबुं आपवुरे, तो शी ढील कराय || म । वाचक जश कह जग धणी रे, तुम तूठे सुख थाय ।। म ॥५॥ श्रीसुविधिनाथ जिन स्तवन । ( मुणो मेरी सुजनी रजनी न जावे रे, ए देशी ) लघु पण हुँ तुम मन नवि मारे । जगगुरू तुमने दिलमां लावुरे। कुणने दीये ए शाबाशी रे। कहो श्रीसुविधि जिणंद विमासी रे। लण्॥१॥मुज मन अणुमांहि नगति के काजी रे। तेह दरीनो तुं माजीरे। योगी पण जे वात न जाणे रे। ते अचरिज कुणथी हुओ टाणे रे ॥ ल॥॥ अथवा थिरमांहि अथिर न मावे रे । मोटो गज दरपणमां आवेरे। जेहने तेजे बुद्धि प्रकाशी रे । तेहने दीजे ए शावाशीरे ॥ल ॥३॥ ऊर्ध्व मूल तरुअर अध शाखारे । उन्द पुराणे एहवीठे नाखारे।अचरिज वाले अचरिज की रे। नगते सेवक कारज सीधुंरे ।। ल०॥॥ प्राप जगतना गुर छो छतां प्राप जेवा मोटाने हुं न्हानो मेवक हृदयमां धारण करी कुटुं, पण आप मोटा छतां मारा जेवा न्हाना मेवफने हदयमां लावता नधी, तो विचारी जत्रो के आपण बन्नेमां कोण गादानीने पार ?
SR No.010687
Book TitleAtmanand Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherBabu Saremal Surana
Publication Year1917
Total Pages311
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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