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श्रीमद्वीरविजयोपाध्याय कृत-
आनंद रस दश्ये । ए अरज सुणीने नाथको नेक नजर करना चये ॥ कुं० ॥ ५ ॥
श्रीपर जिन स्तवन ।
॥ चिंतामणि पास प्रभु अर्ज है सुनो तो सही, ए देशी ॥
र जिन देव विना औरकुं मानुं तो नहीं तुम बिन नाथ जो देव में चाहुं तो नहीं ॥ || की | काम क्रोध मद मोह मोहे करी नरियल हरिहर देवने मानुंतो नहीं | अर० ॥ २ ॥ मनबंबित चिंतामणि पामीने काच शकल हवे हाथमां कालुं तो नहीं ॥ २० ॥ ३ ॥ गले मोतियनकी माला में पेहेरीने और माला काठ की हृदयमें धारुं तो नहीं ॥ २० ॥ ४ ॥ खीर समुद्र की लहेर हुं बोमीने बिल्वर जलनी में चाहना करूं तो नहीं ॥ २० ॥ ५ ॥ शांत स्वरूप प्रभु मूरत देखीने तन मन थीर करी आतमा वारुं तो सही ॥ २० ॥ ६ ॥ वीरविजय कहे र जिन देव विना और देवनकी में वार्त्ता मानुं तो नहीं || अर० ॥ ७ ॥