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________________ स्तवनावली । १२५ श्रीअनंत जिन स्तवन । ॥ राग वरवा पीलु ॥ अनंत जिणंद अनंत बलधारी । सब जी. वनकुं नये हितकारी ॥ मोह अज्ञान घन तिमिर अंधेरा । ज्ञान अनंतसे कीयारे उजेरा ॥ अण ॥१॥ नव नव नमवा लावत नांगे। अनंत जिनंदसु प्रीत जो मांमे ।। जब लग ज्ञान दशा नहीं जागी । तव लग फुःख अनंतको नागी॥अ॥ ॥ ५ ॥ जनम मरणकी आदि न पाई। इनमें कोई न नयेरे सहाई ॥ जब प्रजु तुमरो दरिसण पायो । जनम सफल सब लेखे आयो ॥ अ० ॥ ॥३॥ तारो मुजको अनंत जिन स्वामी । नही तो लागशे तुमने रे खामी ॥ आतम आनंद दिजो जोरी । वीरविजय मागे कर जोमी ॥ अ० ॥४॥ श्रीधर्मनाथ स्तवन। ॥ राग काफी ॥ धर्म जिनंदसुप्रीत लागी मुनेरे धर्म जिणंदसुं प्रीत ॥आंकणी॥ प्रीत पुराणी न तोमो जिन जी। ए सजनकी न रीत ॥ लागी० ॥ १ ॥
SR No.010687
Book TitleAtmanand Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherBabu Saremal Surana
Publication Year1917
Total Pages311
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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