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११८ श्रीमद्वीरविजयोपाध्याय कृतजाने । रोग निकंदन कामी ॥ मे ॥ प्रजु ॥ ॥४॥ जग चिंतामणि सुरतरु सरिखो । नीरखी गद सब वामी ॥ मे ॥ प्रजु० ॥ ५ ॥ तारण तरण डे बिरुद तुमारो। नव जय नंजनहारी ॥ मे॥ प्रजु॥६॥आतम आनंद रसके दाता । वीरविजय हितकारी ॥ मे ।। प्र० ॥७॥
श्रीपद्मप्रन जिन स्तवन ।
॥राग रेखता ॥ । खलक एक रैनका सुपना, ए देशी ॥
पद्मप्रनु प्राणसे प्यारा । डोमावो कर्मनी धारा । करम फंद तोमवा धोरी । प्रजुजीसे अर्ज हे मोरी ॥ प० ॥१॥ लघुवय एक थे जीया । मुक्तिमें वास तुम कीया ॥ न जाणी पीर तें मोरी । प्रनु अब खेंच ले दोरी ॥ प० ॥ ५॥ विषय सुख मानी मो मनमें । गये सब काल गफलतमें ॥ नारक दुख वेदना नारी । नीकलवा ना रही बारी ॥ प० ॥ ३ ॥ पर वश दीनता कीनी । पापकी पोट शिर लीनी ॥ जक्ति नहीं जाणी तुम केरी । रह्यो निशदिन दुःख घेरी ॥ प० ॥ ४ ॥ श्नविध वीनती तोरी । करूं में दोय