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श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत--
वर बानी । सो नी दोय लेद से वरन्यो, अव्य नाव सुखदानी ॥ जिनंद ॥ १॥ करम ग्रहण का बेद करे जो, संवर दरव विधानी । जव हेतु किरिया जो त्यागे, नाव संवर सुख खानी ॥ जिनंद ॥२॥ जिस जिस कारण सेंती रंधे, आश्रव जल पथ पानी । ते ते उपाय निरोधके तांश, जोमे पंमित शानी ॥ जिनंद ॥३॥ खम मृछ सरल अनीहा सेती, क्रोध मान बल थानी। लोन ए चारों क्रम से रुन्धे, तो कहीए सुनध्यानी ॥ जिनंद ॥४॥ करे असंयम दृढता जिनकी, ते विषयों विष मानी । इन्द्रिय संयम पूरन सेवी, करे जर मूर से हानी ॥ जिनंद ॥ ॥ ५ ॥ तीन गुप्तिसे योगको जीते, हरे परमाद कुरानी । अपरमादे पाप योगकुं, विरती से सुख जानी ॥ जिनंद ॥ ६॥ सम्यग् दरससें मिथ्या जीती, आरत रौद्ध हि धानी । थीर चित करीने जीत चिदानंद, आतमपद निर्वानी ॥ जिनंद० ॥ ॥