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अथ
द्वादश भावना ।
तत्र प्रथम अनित्य नावना ।
योवन धन थीर नही रेहना रे॥आंचली॥ प्रात समय जो नजरे आवे, मध्य दीने नहीं दीसे । जो मध्याने सो नहीं रात्रे, क्यों विरथा मन हींसे ॥ योवन ॥१॥ पवन ऊकोरे बादर बिनसे, त्युं शरीर तुम नासे । लच्छी जल तरंगवत चपला, क्यों बांधे मन आसे ॥ योवन ॥ ॥२॥ वदलन संग सुपनसी माया, श्नमें राग हि कैसा । बिनमें उमे अर्क तूल ज्यु, योवन जगमें ऐसा ।। योवन ॥३॥ चक्री हरि पुरंदर राजे, मद माते रस मोहे । कौन देशमें मरी पहुंते । तिनकी खबर न कोहे ॥ योवन ॥४॥ जग मायामें नहीं लोनावे, आतमराम सयाने । अजर अमर तुं सदा नित्य हे, जिन धुनि यह सुनी काने ॥ योवन ॥५॥