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स्तवनावली। नक्तिशुं रे, तो तुम रिणको न अंत ॥ जिनंद ॥४॥ कदि एक दिन मुज आवशे रे, निरखं तेरो रे रूप । मो मन आशा तो फलेरे, फिर न परं नव कूप ।। जिनंद ॥ ५ ॥ चरण कमल की रेणुमें रे, हुं लोटूं जगदीश ॥ अंहि न बोर् तब लगेरे, न करे निज सम ईश ॥ जिनंद॥ ॥ ६॥ आतमराम तुं माहरो रे, त्रिसला नंदन वीर ॥ ज्ञान दिवाकर जग जयो रे, नंजन पर पुःख नीर ॥ जिनंद ॥७॥
स्तवन नवमुं।
॥ राग रामकली ॥ तेरो दरस मन नायो चरम जिन तेरो ॥ आंचली ॥ तुं प्रजु करुणा रसमय स्वामी, गर्नमें सोग मिटायो ॥ त्रिसला माताको आनंद दीनो, ज्ञात नंदन जग गायो॥ चरम ॥ १ ॥ वरसी दान दे रोरता वारी, संयम राज्य उपायो। दीन हीनता कबुय न तेरे, सतचिद् आनंद रायो । चरम ॥२॥ करुणा मंथर नयने निरखी, चंग कौशिक सुख दायो, आनंदरस जर सुरग पहुँतो, एसा कौन करायो । चरम ॥ ३ ॥ रतन कंबल