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मनापड्जीवनिका
प्रयतना से बोलता वह प्राणि-वर्ष', करता सही। ' 1. 'बन्ध होतो पाप का जिसका कि फल है कटुक ही ॥१०॥ ठहरना, 'चलना व सोना, बैठना कैसे कहो :
बोलना, खाना मुझे कैसे, न ज्यों अघ-बन्धे हो ? ॥१०॥ यत्न से चलना, ठहरना, बैठना, सोना अहो। ''
' यत्न से बोलना, खाना, ज्यों नही अघ-बन्ध हो ॥११०।। आत्मवत् सब जीव जिसके, तथा सम्यक् दृष्टि हो।
पिहित-आस्रव दान्त मुनि के, नही अघ की सृष्टि हो ॥१११॥ ज्ञान पहले फिर दया यों सभी स्थित हैं सयमी । • अज्ञ नर क्या करे कैसे श्रेय, अघ जाने भ्रमी ? ॥११२॥ जानता सुन · श्रेय को अश्रेय को भी श्रवण कर।
___अभय को सुन जानता धारे कि जो हो श्रेयतर ॥११३॥ जानता जो जीव को न अजीव को भी जानता।
''अज्ञ जीवाजीव का क्या चरित को पहचानता ॥११४॥ जीव को जो जानता व अजीव को भी जानता।
: विज्ञ जीवाजीव का, वह चरण को पहचानता ॥११॥ जानता जो जीव और अजीव दोनो को यदा ।
सभी जीवो की विविध गति जान लेता है तदा ॥११६।।. सभी जीवो की विविध गति जान लेता है यदा।
पुण्य, पाप व बन्ध, शिव को जान पाता है तदा ॥११७॥ पुण्य, पाप व बन्ध, शिव को जान पाता है यदा।
त्यागता सब देव मनुजोत्पन्न भोगो को तदा ॥११८।।, त्यागता सब देव मनुजोत्पन्न भोगों को यदा।
छोडता संयोग बाह्याभ्यन्तरो का वह तदा ॥११॥ छोड़ता संयोग बाह्याभ्यन्तरो का वह यदा।
प्रवजित मुण्डित स्वय अनगार होता है तदा ॥१२०॥ प्रवजित मुण्डित स्वय अनगार होता है यदा।
अनुत्तर उत्कृष्ट संवर धर्म अपनाता तदा ॥१२॥