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उत्तराध्ययन
रस ग्रहण मे अतृप्त, तृष्णाभिभूत हो वह चोरी करता। ___ लोभ दोष से झूठ-कपट बढता फिर दुख से छूट न सकता ॥६६॥ झूठ बोलते समय व पहले पीछे होता दुखी दुरन्त ।
रस-अतृप्त त्यो चोरी-रत, होता असहाय दुखी अत्यन्त ॥७०॥ रसासक्त को कही कदाचित् किचित् भी क्या सुख हो पाता ? - प्राप्ति काल मे दुख, परिभोग समय अतृप्ति का दुख हो जाता ।७१॥ अप्रिय रस मे द्वेष-रक्त दुख-परम्परा को है अपनाता ।
दुष्ट चित्त से कर्म बाँध, परिणाम काल मे वह दुख पाता ।।७२।। रस-विरक्त नर अशोक बन दुख परम्परा से लिप्त न वनता। जल मे ज्यो कमलिनी पत्र, त्यो वन अलिप्त वह जग में रहता ॥७३॥ स्पर्श काय का विषय कहाता, राग हेतु वह प्रिय बन जाता।
द्वेष- हेतु अप्रिय बनता, ,समता से वीतराग कहलाता ।।७४।। काय स्पर्श का ग्राहक है फिर स्पर्श काय का ग्राह्य कहाता। __राग हेतु वह प्रिय कहलाता, द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता ।।७।। शीत जलावसन्न रागातुर ग्राह-ग्रहीत महिष हो जाता। __ त्यो ही तीव्र स्पर्श आसक्त मनुज अकाल मे विनाश पाता ॥७६॥ तीन द्वेष करता अंप्रिय मे दुःख उसी क्षण वह पाता नित । - निज दुर्दान्त दोष से दुखी, न इसमे स्पर्श दोष है किचित् ॥७७॥ रुचिर स्पर्श मे तीव्र राग, अप्रिय मे करता द्वेष स्वत. । ____ वह अज्ञांनी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त अत. ॥७॥ स्पर्श-पिपासानुग गुरु-क्लिष्ट स्वार्थवश अज्ञ विविध त्रस स्थावर । 'जीवो का वध करता, परितापित पीड़ित भी, उन्हे अधिकतर ॥७९॥ स्पर्श-गृद्ध उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग-लिप्त ।
रहता उसे कहाँ सुख, भोग समय भी रहता जबकि अतृप्त ।।८।। स्पर्श-अतृप्त सुस्पर्श ग्रहण मे रहता लिप्त, न होता तुष्ट ।
अतुष्टि दोष दुखी पर द्रव्य चुरा लेता वह लोभाविष्ट ॥१॥ स्पर्श ग्रहण मे अतृप्त तृष्णाऽभिभूत हो चोरी वह करता।
'लोभ दोप से झूठ-कपट बढता, फिर दुख से छूट न सकता ॥२॥