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________________ १८० उत्तराध्ययन शब्द-गृद्ध, उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग-लिप्त । रहता, उसे कहाँ सुख भोग समय भी रहता जवकि अतृप्त ॥४१॥ शब्द-अतृप्त, सुगब्द ग्रहण में रहता गृद्ध, न होता तुष्ट । ___ अतुष्टि दोष दुखो, पर वस्तु चुराता है वह लोभाविष्ट ॥४२॥ शब्द ग्रहण मे अतृप्त तृष्णाभिभूत हो वह चोरी करता । लोभ दोष से झूठ-कपट वढता, फिर दुख से छूट न सकता ॥४३॥ झूठ बोलते समय व पहले पाछे होता दुखी दुरन्त । त्यों चोरी-रत शब्द अतृप्त अनाश्रित, पाता दुख अत्यन्त ।।४४।। शब्द-गृद्ध को कही कदाचित किंचित् भी क्या सुख हो पाता? प्राप्ति समय दुख, फिर परिभोग समय अतृप्ति का दुख हो जाता।।४५॥ अप्रिय शब्द द्वेषरत त्यो दुख-परम्परा को है अपनाता । दुष्ट चित्त से कर्म बाँध, परिणाम समय में वह दुख पाता ।।४६।।' शब्द-विरत नर अशोक हो दुख-परम्परा से लिप्त न बनता। जल मे ज्यो कमलिनी पत्र,त्यो वन अलिप्त वह जग मे रहता ।।४७।। गंध घ्राण का विषय कहाता, राग हेतु वह प्रिय बन जाता। द्वेष हेतु अप्रिय बनता, समता से वीतराग कहलाता ॥४८॥ घ्राण गंध का ग्राहक है फिर गध घ्राण का ग्राह्य कहाता। राग हेतु वह प्रिय कहलाता, द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता ॥४६॥ औषधि-गध-गृद्ध रागातुर अहि, बिल-बाहर मारा जाता। त्यो ही तीव्र गंधलोलुप नर अकाल मे ही विनाश पाता ॥५०॥ तीन द्वेष करता अप्रिय मे, दुख उसी क्षण पाता नित। निज दुर्दान्त दोष से दुखी न इसमें गध-दोष है किंचित् ॥५१॥' रुचिर गध मे तीन रक्त, अप्रिय मे करता द्वेष स्वत.। __वह अज्ञानी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त अत ।।२।। गध-पिपासानुग गुरु-क्लिष्ट स्वार्थवश अज्ञ विविध त्रस स्थावर। जीवो का वध करता, परितापित पीडित भी, उन्हे अधिकतर ॥५३॥ गध-गृद्ध उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग-लिप्त रहता, उसे कहाँ सुख भोग समय भी रहता जवकि अतृप्त ॥५४॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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