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________________ १६२ उतराध्ययन विनय प्राप्त कर गुरु की आशातना नहीं करता गत-शोक । नरक व तिर्यग् सुर-नर सम्बन्धी दुर्गति को देता रोक ॥२५॥ कीर्ति, भक्ति, बहुमान व गुण-प्रकाशन द्वारा वह सिरमोर। ___ सुर-नर सवधी सद्गति से अपना नाता लेता जोड़ ॥२६॥ सिद्धि सुगति शोधन व विनयमूलक सब प्रशस्त कार्यो को नर । करता, अन्य वहुत जीवो को विनय-मार्ग पर ले पाता फिर ॥२७॥ आलोचना' स्वय की करने से क्या फल पाता है सत्त्व । इससे अनन्त भव-वर्धक फिर मोक्ष-मार्ग घातक जो तत्त्व ॥२८॥ दंभ निदान व मिथ्यादर्शन शल्यो को फेकता निकाल । और प्राप्त करता है वह ऋजु-भाव, यहा सब तज जजाल ॥२६॥ सरल भाव को प्राप्त हुआ वह मनुज अमायी स्त्री व नपुसक वेद कर्म का बन्ध न करता पूर्व-बद्ध क्षय करता साधक ॥३०॥ निज निन्दा का क्या फल भगवन | इससे होता पश्चाताप । उससे विराग प्राप्त, करण-गुणश्रेणी पाता अपने-आप ॥३१॥ और करण-गुणश्रेणी प्राप्त श्रमण करता फिर तीव्र प्रयास । जिसके द्वारा वह मुनि फिर कर देता मोह कर्म का नाश ॥३२॥ गहाँ से क्या फल मिलता ? गर्दा से प्राप्त अनादर होता। उससे वह फिर अप्रशस्त योगो से सत्वर निवृत्त होता ॥३३॥ फिर प्रशस्त योगो से सयुक्त होकर वह अनगार महा। अनन्तघाती परिणतियो को कर देता है क्षीण वहाँ ॥३४॥ सामायिक से हे भगवन् । यह जीव यहाँ क्या फल पाता? सामायिक से वह सावध योग से उपरत हो जाता ॥३५॥ भगवन् । चतुविशति-स्तव से जीव यहाँ क्या फल पाता है ? चतुर्विगति स्तव से वह दर्शन-विशुद्धि को अपनाता है ॥३६॥ गरु-वन्दन' से भगवन् । जीव प्राप्त क्या करता सुगुण प्रवर? गुरु-वन्दन से नीच-गोत्र कर्मों को क्षय करता सत्वर ॥३७॥ उच्च-गोत्र का बन्ध न करता फिर सौभाग्य अबाधित प्राप्त। .. अप्रतिहत आज्ञा-फल, दक्षिण भाव उसे होता फिर प्राप्त ॥३८॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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