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________________ १३६ उत्तराध्ययन अगर रूप से है वैश्रमण व ललित भाव से नलकूबर । यदि प्रत्यक्ष इन्द्र है तू फिर भी न चाहती तुझे उम्र भर ॥४१॥ [धूमकेतुक दुरासद प्रज्वलित पावक में सही। ____ अगन्धन कुल-सर्प पडते वान्त फिर लेते नही ।।] धिग् तुझे है यश कामिन् ! भोग-जीवन के लिए । वमन पीना चाहता तो मृत्यु शुभ तेरे लिए ॥४२॥ पुत्र अन्धकवृष्णि , का: तू- भोज-पुत्री मैं · अहो । हम न गधन कुल सदृश हों, स्थिरमना सयम वहो ॥४३॥ रागभाव, अगर - करेगा तू स्त्रियों को देख कर । वायु-पाहत हट-सदृश अस्थिर वनेगा शीघ्रतर ॥४४॥ भाडपाल या ग्वाला उस. धन का न कभी होता स्वामी । __ इस प्रकार तू कभी न होगा सयम जीवन का स्वामी ॥४५॥ [क्रोध मान का निग्रह कर मायाव लोभ को जीत प्रवर । : - इन्द्रिय-गण को वश-कर-तन को.अनाचार से निवृत्त कर।।] सुन सुभाषित. वचन- उस - संयमवती. - के सद्गुणी । . • . धर्म मे स्थिर--हुआ , ज्यों- अकुश लगे -गज-अंग्रणी-॥४६।। मन वच काया से सगुप्त - बना दमितेन्द्रिय वह मुनिवर- :---- दृढव्रती हो निश्चल मन से सयम पाला जीवन-भर-1॥४७॥ आखिर हुए केवली दोनो-- उग्र -तपस्या धारण कर । --सव कर्मों को खपा अनुत्तर सिद्धि प्राप्त कर हुए अमर ।।४।। वुद्ध पंडित विचक्षण इस भाँति- करते हैं सदा । ; भोग से होते अलग जैसे कि पुरुषोत्तम मुदा ॥४६॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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