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उत्तराभ्ययन
त्यो सयम तत्पर हो करता भिक्षु स्वतन्त्र विहार प्रवर ।
मृगचर्या का पालन कर मोक्षस्थल को जाता सत्वर ॥२॥ अनेकचारी, अनेकवासी ध्रुव गोचर एकाकी मृग ज्यों।
नही किसी की भिक्षागत मुनि हीला निन्दा करता है त्यों ॥३॥ मृगचर्या धारूगा यथा-सौख्य हो तथा करो सुतवर ! ___मात-पिता की अनुमति पाकर, उपधि छोडता है बुधवर ॥८४॥ सब दुख-मुक्तिप्रदा मृगचर्या धारू गा मैं अनुमति पाकर ।
कहा पिता-माता ने, जैसे सुख हो वैसे करो पुत्रवर ! ॥८॥ यों बहु विध अनुमति के लिए पिता-माता को राजी कर।
ममत्व-छेदन करता, ज्यों कचुक का, महा नाग द्रुततर ॥८६॥ ऋद्धि, मित्र, धन, पुत्र, कलत्र व ज्ञाति जनो को प्रमुदित मन। .
कपड़े पर से ज्यो कि धूलि को झटकाकर वह बना श्रमण ।।८७॥ पांच महाव्रत युक्त, समिति पंचक से समित, त्रि-गुप्ति-गुप्त है।
बाह्याभ्यन्तर तप करने के लिए बना सतत उद्यत है ॥८॥ निर्मम निरहकर और निर्लेप, त्यक्त-गौरव मतिमान ।
त्रस स्थावर सब जीवो मे रखने वाला समभाव महान ॥८६॥ लाभ अलाभ और सुख-दुख मे जीने मरने मे सम है ।
निन्दा-स्तुति-अपमान-मान मे सम रहना जिसका क्रम है ।।६०॥ गौरव, दण्ड, कषाय, हास्य, भय, शल्य, शोक से वर्जित है।
अशुभ-निदान और बन्धन से रहित बना, धृति अर्जित है ॥११॥ अत्र लोक व परत्र लोक मे अनासक्त पावन तम है ।
वासी, चन्दन मे सम और अशन अनशन मे भी सम है ॥१२॥ अप्रशस्त द्वारो का अवरोधक, पिहिताश्रव शुभ मन है ।
शुभ अध्यात्म-ध्यान-योगो से वह प्रशस्त-दम-शासन है ॥१३॥ इस प्रकार चारित्र, ज्ञान, दर्शन, तप शुद्ध भावना से ।
भलीभांति आत्मा को भावित किया, विमुक्त कामना से ॥१४॥ बहु वर्षों तक श्रमण धर्म का निरतिचार पालन करके । । ततः अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की एक मास-मनशन धरले ॥६५॥