________________
१००
उत्तराध्ययन
आर्य। वचन जो कहता मुझसे मैं भी उसे जानता श्रेय । __भोग सगकर है, पर मेरे जैसो-हित ये हैं दुर्जेय ॥२७॥ चित्र ! हस्तिनापुर मे देख चक्रवर्ती अति ऋद्धि-निधान ।
भोगो मे हो गृद्ध वहाँ मैंने कर डाला अशुभ निदान ॥२८॥ उसका प्रायश्चित्त न किया उसी का यह ऐसा है कटु फल ।
श्रेष्ठ धर्म को हुा जानता, भोगो मे मूच्छित हूँ प्रतिपल ॥३६॥ हुआ देखता स्थल को पंकमग्न गज पहुँच न पाता तट पर ।
काम-गृद्ध हम मुनि पथ का अनुशरण न कर पाते है क्षण-भर ।॥३०॥ रात्रि-दिवस ये शीघ्र जा रहे मनुज भोग ये नित्य न राजन् ! . । प्राप्त भोग नरको तजते हैं ज्योकि क्षीणफल तरु को खगगण ॥३१॥ भोग त्यागने मे अशक्त यदि है तो राजन् आर्य कर्म कर ।
प्रजानुकम्पी धर्मस्थित बन जिससे होगा वैक्रेयिक सुर ॥३२॥ भोग-त्याग की बुद्धि न तेरी अति प्रारभ परिग्रह मे रतः।
सबोधित कर मैंने व्यर्थ प्रलाप किया नृपं जाता हूँ झट ॥३३॥ ब्रह्मदत्त पांचाल भूप मुनि के वचनो को नही मानकर ।
भोग अनुत्तर भोगो को वह नरक अनुत्तर पहुंचा मरकर ॥३४॥ विरत कामना से, उत्कृष्ट चरण तप सयम का पालन कर ।
परम सिद्धिगति में वह पहुंचा चित्त महर्षि महागुण गह्वर ॥३५॥