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सनत्कुमारचरित (व्याध ?) वर्षाकाल क्या विरहीने संतापतो नथी ? (५४४). आकाशमां इन्द्रधनुष्यने, मानस सरोवर जता कलहंसोने, बंने कांठाओने तोडी पाडती नदीओने, मधुर कलरव करता चातकोने, धरतीनुं तळियु नष्ट करता जळप्रवाहने, तथा केतकी, शिखरी, शिलिन्ध्र अने कुटज वृक्षोनां पुष्पोने-ए बधु जोईने, बर्षाकाळमां क्या विरहीजननां हैडां नथी फाटी जतां ? (५४५).
जेमां वादळो क्वचित् वरसे छे, चंद्रकिरणो सभर विस्तरे छे, खोलेला पद्म, कमळ अने कल्हार वडे नदी अने सरोवरो शोभे छे, सप्तच्छद अने बंधुजीवने फूलोथी जे समृद्ध करे छे, जेणे जळप्रिय राजहंसनो संचार द्विगुणित कर्यों छे (१) (५४६), जेमां लीढं घास चरीने प्रसन्न थयेलुं गोवृंद शीगडांनी अणीथी भोंयने खणी रयुं छे, जेमां सूर्यनी किरणावलि विस्तरे छे, आखा पृथ्वीमंडळनो पंक जेमां शोषायो छे, जेमां प्रवासीओ संचार करी रह्या छे तेवी आ शरदऋतु जगतमां स्वामीथी वियुक्त बनीने जीवता लोको माटे दुःखकर होईने कई रीते वीते ? (५४७).
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- जेणे मालती, बकुल, विचकिल अने मंदार वृक्षोनो वैभव नष्ट कर्यो छे, जेणे वोरडीने फूल अने फळथी समृद्ध करी दीधी छे, झाकळकणोना प्रसरता प्रभावथी
जेणे हिमालयना गौरवनी स्पर्धा करी छे, जेमां दिवस ढूंका बन्या छे ने रात्रिनो . गाळो बेवडो थयो छे, जेणे प्रवासीओ अने दरिद्रोने घणुं देहकष्ट आप्यु छे (५४८), जेमां सुखी लोको उत्तम केसर, बंध महालय, सगडी, सुंदरी अने सुगंधी तेलनो आदर करे छे, जेमां प्रिया अने प्रियतम परस्परनुं संगसुख माणे छे. जेमां कामळीनां वस्त्रो लपेटवामां आवे छे, जे प्रियाविरहित अने स्वामीत्यक्त लोकोने दुःखकर छे एवो आ काळभरख्यो हेमंत क्यारे वीतशे ? (५४९). . जेमां चंद्र दुःखद छे, सूर्य वहालो लागे छे, फळना भारथी बोरडी भांगी पडे छे, वाल अने रीगणी फळरहित बनी गयां छे, कपास अने तुवेरनां फूलोनो संहारक होवाथी जे दुःखकर छे, लोध्र अने प्रियंगुना पुष्पसमूहमांथी ऊडता पराग वडे जेणे दशे दिशाओने रंगी दीधी छे, जेणे कुंदनी कळीने अने मालतीना फूलने प्रफुल्ल कर्या छे, काशफूलने विकसापां छे (५५०), जेमां मित्रो अने स्वजनोथी विरहित लोको अने धनसंपत्ति झंखता प्रवासीओनी दंतावलि अविरत पडता झाकळथी कडकडे छे अने तेमना हाथ अने हृदयनो संबंध थाय छे--एवो