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कञ्छुका।
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लिए हाथ फैलाती है, उतनी ही बार सिंहासन उससे दूर हट जाता है । जाग्रत होनेपर रानीने प्रतिज्ञा की कि मैं युद्धक्षेत्रमें भी स्वामीके पास सदैव उपस्थित रहूंगी । राजाने बहुत निषेध किया परन्तु रानीने एक भी न सुनी और हँसकर कहा-" संन्यासी महाराज, चौहानवंशकी लड़कियां युद्धको देखकर भयभीत नहीं होती। रानी राजासे 'संन्यासी महाराज' कहा करती थीं।
शाहगढ़में सेनाका कोलाहल सुनाई देने लगा । फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशीके मध्याह्न समयसे युद्ध प्रारंभ हुआ । संध्या हो गई, तो भी दोनों दलोमेंसे कोई भी निरस्त न हुआ । सहसा रानीके मनमें एक उत्साहकी तरंग उठी। किसी तरहसे वह डेरेमें न रह सकी। वह व्यग्र होकर युद्ध-. वेष धारण करके घोडेपर सवार हो गई और डेरेपर जो पचास पैदल सिपाही मौजूद थे, उनको साथ लेकर 'जय चंदेलपतिकी जय' कह करके एक ओरसे शत्रुसेना पर टूट पड़ी । रात्रिके समय नयी सेनाके आजानेसे थकी हुई सेनाने उत्साहहीन होकर युद्धस्थलसे भागना शुरू कर दिया । 'मार' 'मार' शब्द कहती हुई बुंदेलखंडकी सेना उसका पीछा करने लगी।
विजय प्राप्त करनेके पश्चात् राजा और रानी दोनों एक साथ अपने शिविरको लौटे । रानीकी आज्ञासे तत्काल ही खुली हुई चांदनीमें शय्या बिछाई गई । युद्धवेशका परित्याग किये विना ही महाराज उस पर लेट गये । रानी उनके पास ही बैठ गई । वैद्य बुलाया गया; परंतु महाराजने स्थिर भावसे कह दिया,-" चिकित्साका कुछ फल न होगा, अब उपाय करना व्यर्थ है।" तो भी रानीके अनुरोधसे वैद्यने महाराजके वक्षःस्थलके घावपर औषधका लेप किया और रानीने अपने हाथसे औषध पिलाकर पतिका मुखचुम्बन किया।
हर्षदेवने रानीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा-" मेरा एक अनुरोध मानना पड़ेगा। तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरी चितापर अपना प्राण विसर्जन न करोगी ।” महारानीका कण्ठ शोकके आवेगसे रुद्ध हो गया। उन्होंने बड़ी कठिनाईसे कहा-“ देव, रमणीजन्मझा जो यथार्थ सुख है, उससे