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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
हुआ था; परन्तु थोड़े ही समय में अपनी कारगुजारीसे मैं डिटेक्टिव पुलिसका इन्स्पेक्टर बन गया ।
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जिस तरह उज्ज्वल दीप शिखामेंसे काला काजल निकलता है, उसी तरह मेरी स्त्रीके प्रेममेंसे भी ईर्ष्या और सन्देहकी कालिमा निकलती रहती और यह मेरे काम में बाधक बनती; क्योंकि पुलिस के काम में स्थानास्थानका, कालाकालका विचार नहीं किया जा सकता | बल्कि उसमें तो स्थानकी अपेक्षा अस्थान और कालकी अपेक्षा श्रकालकी ओर ही अधिक ध्यान देना पड़ता है; और इससे मेरी स्त्रीका स्वभावसिद्ध सन्देह और भी दुर्निवार हो जाता। जब वह मुझे भय दिखाने के लिए कहती- तुम जब चाहे तब, जहाँ चाहे वहाँ, रह जाते हो; मेरे पास बहुत ही कम आते हो। क्या इससे तुम्हें मेरे विषय में सन्देह नहीं होता ? तब मैं उससे कहता - सन्देह करना मेरा व्यवसाय है; इसलिए मैं उसे अपने घरमें लाने की जरूरत नहीं समझता ।
स्त्री कहती — सन्देह करना मेरा व्यवसाय नहीं; मेरा स्वभाव है । मुझे तुम सन्देहका जरा-सा भी मौका दो, तो मैं सब कुछ कर सकती हूँ !
मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जासूस विभाग में मैं सबका शिरोभूषण बनूँगा और दुनियाँ में अपना नाम अमर कर जाऊँगा । जासूसोंके सम्बन्ध में जितनी रिपोर्टें और उपन्यास आदि मिल सकते थे, मैंने उन सबको पढ़ डाला । परन्तु उनसे मेरे मनका सन्तोष और धैर्य और भी बढ़ गया । इसका एक कारण था ।
हमारे देश के अपराधी डरपोक और निर्बंध होते हैं और यहाँ अपराध भी निर्जीव एवं सरल होते हैं । उनमें न दुरूहता होती है और न दुर्गमता । हमारे देश के हत्यारे हत्या करनेकी उत्कट उत्तेजनाको संवरण