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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
इससे पहले किसी गैर स्त्रीके साथ मेरा कोई सम्पर्क नहीं हुआ था। आजकल की जो स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करके परदेके बाहर निकलकर घूमा फिरा करती हैं, उनकी रीति नीति से मैं कुछ भी परिचित नहीं था; इसी लिए मैं यह भी नहीं जानता था कि उन लोगोंके आचरण में किस जगह शिष्टताकी सीमा और किस जगह प्रेमका अधिकार है । पर साथ ही मैं यह भी नहीं जानता था कि वे क्यों मुझसे प्रेम न करेंगी। भला मैं किस बात में कम हूँ !
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समय
किरण जिस समय मेरे हाथ में चायका प्याला दिया करती थी, उस मैं चाय के साथ साथ किरणके प्रेमसे भरा हुआ पात्र भी ग्रहण किया करता था । जिस समय मैं चाय पीया करता था, उस समय मैं सोचता था कि मेरा ग्रहण करना सार्थक हुआ और यह भी सोचता था कि किरणका दान भी सार्थक हुआ। किरण यदि सहज स्वर में भी कहतीमहीन्द्र बाबू, कल सवेरे आइएगा न ? उस समय उसमें से छन्द और लयके साथ झङ्कत हो उठता थाः
" कि मोहिनी जान बन्धु कि मोहिनी जान ! अबलार प्राण निते नाहि तोमा हेन !"
( प्यारे, तुम कैसी मोहनी जानते हो ! तुम्हें एक अबलाकेप्राण इस तरह न लेना चाहिए ! )
मैं सहज भाव से उत्तर दिया करता था - हाँ, कल आठ बजे तक. आऊँगा । क्या मेरे इस कहने में किरण यह नहीं सुनती थी कि -
" पराण पुतलि तुमि हिये मणिहार,
सरवस-धन मोर सकल संसार ।"
( तुम मेरे प्राणोंकी पुतली हो, हृदयके हार हो, सर्वस्व हो और सकल संसार हो । )