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१४.
रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
बात कही है। वह हँसता हुआ मेरे पास आ गया और आँचलसे वृक्षके नीचेकी भूमि बहुत अच्छी तरह झाड़ पोछकर उसने जेबसे एक रूमाल निकाला । तहें खोलकर उसे बिछाया और तब उसके ऊपर सावधानतापूर्वक बैठकर कहा--जो प्रहसन तुमने लिख भेजा है, उसे पढ़ते पढ़ते तो मारे हँसीके जान निकलने लगती है। इतना कहकर वह स्थान स्थानसे उसकी आवृत्ति करने लगा और इतना अधिक हँसने लगा कि उसका साँस रुकनेकी नौबत आ गई। पर मुझे उस समय यह जान पड़ने लगा कि जिस कलमसे मैंने वह ग्रहसन लिखा था, वह कलम जिस वृक्षकी लकड़ीसे बनी थी, यदि इस समय मुझे वह वृक्ष मिल जाता और मैं उसे जड़समेत उखाड़ डालता तथा ढेर-सी श्राग जलाकर उस ग्रहसनको उसीमें रखकर राख कर देता, तो भी मेरा खेद न मिटता।
अमूल्यने संकोचपूर्वक पूछा--तुम्हारा वह काव्य कहाँ तक पहुँचा? उसका यह प्रश्न सुनकर मेरा शरीर और भी जलने लगा। मैंने मन ही मन कहा-जैसा मेरा काव्य है, वैसी ही तुम्हारी बुद्धि भी है ! फिर उससे कहा-भाई, ये सब बातें फिर हुआ करेंगी। तुम इस समय मुझे व्यर्थ तंग मत करो। ____अमूल्य बहुत कुतूहली आदमी था। बिना चारों ओर देखे वह रह ही न सकता था। उसके भयसे मैंने उत्तर अोरका दरवाजा बन्द कर दिया । उसने मुझसे पूछा- क्यों जी, उधर क्या है ? मैंने कहा - कुछ भी नहीं ! आज तक मैंने अपने जीवन में कभी इतना बड़ा झूठ नहीं बोला था।
दो दिनों तक मुझे अनेक प्रकारसे तंग करने और अच्छी तरह जलाने के उपरान्त तीसरे दिन सन्ध्याकी गाड़ीसे अमूल्य चला गया। इन दो दिनोंमें मैं बागके उत्तरकी ओर नहीं गया। यहाँ तक कि