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अध्यापक
प्रकृति की उस नीरव प्रार्थनासे मेरे हृदयकी तन्त्री बज रही है। बार बार मैं केवल यही गान सुन रहा हूँ, "हे सुन्दरी, हे मनोहारिणी, हे विश्व-विजयिनी, हे मन और प्राणरूपी पतंगकी एक मात्र दीप-शिखा, हे अपरिसीम जीवन, हे अनन्त मधुर मृत्यु ।" मैं इस गानको समाप्त नहीं कर सकता, इसे संलग्न नहीं कर सकता, इसे श्राकारमें परिस्फुटित नहीं कर सकता । इसे छन्दों में बाँधकर व्यक्त करके मुंहसे कह नहीं सकता। ऐसा जान पड़ता है कि मानो मेरे अन्तरमै ज्वारके. जलके समान एक अनिर्वचनीय अपरिमेय शक्तिका संचार हो रहा है। इस समय मैं उसे अपने काबूमें नहीं कर सकता । जिस समय कर सकूँगा, उस समय मेरा कंठ अकस्मात् दिव्य संगीतसे धनित हो उठेगा-मेरा ललाट अलौकिक आभासे प्रकाशमान हो उठेगा ।
ऐसे समयमें उस पारके नईहाटी स्टेशनसे एक नाव अाकर मेरे बागके सामने घाटपर लगी। दोनों कन्धों पर पड़ी हुई चादर मुलाता हुआ, बगल में छाता दबाए, हँसता हुअा अमूल्य उस परसे उतर पड़ा। अकस्मात् अपने उस मित्रको देखकर मेरे मनमें जिस प्रकारका भाव उठा, उस प्रकारका भाव, मैं आशा करता हूँ, किसीके मनमें शत्रुके प्रति भी न उठता होगा । दोपहरके प्रायः दो बजे के समय मुझे उसी वटकी छायामें बिलकुल पागलोंकी तरह बैठा हुआ देखकर अमूल्यके मनमें एक बहुत बड़ी प्राशाका संचार हुया । कदाचित् उसे इस बातका भय हुआ होगा कि देशके भावी सर्वश्रेष्ठ काव्यका कोई अंश मेरे पैरोंकी आहट सुनकर जंगली राजहंसकी तरह कृदकर जलमें न जा पड़े, इसलिए वह बहुत ही संकुचित भावसे धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा। उसे इस दशामें देखकर मुझे और भी क्रोध आया। कुछ अधीर होकर मैंने पूछा-क्यों जी अमूल्य, यह बात क्या है ! तुम्हारे पैर में कोई काँटा तो नहीं गड़ गया ? अमूल्यने सोचा कि मैंने कोई बहुत मजेदार