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________________ C सुभगकोक विपचिकरत्वतः कुवलयस्य विकाशपरत्वतः अमृतगुश्च कलोदयवत्वत स्त्वमसि माय मनुस्थितिभृत्त्वतः ।२८ प्रयं-हे स्वामिन् ! अमृत के समान वचनों के बोलनेवाले और अनेक कला ऋद्धि योंके धारक होने से चन्द्रमा भी प्राप हो हो, चन्द्रमा सन्ध्याके समय प्रगट होता है तो पाप पुण्य को लिये हए हो, चन्द्रमा चक्वों को प्रापत्ति करनेवाला होता है मगर प्राप निर्मल प्रात्मा हो इसलिये पापके विध्वंश करनेवाले हो, चन्द्रमा रात्रि विकाशो कमलों को, किन्तु पाप तो समस्त भूमण्डल को हो प्रसन्न करनेवाले हो। मुचलनोऽपि भवानचलम्थितिचिननिष्कपटोऽपि दिगम्बरः । परिवृतः क्षमयाप्यपरिग्रहः ममम्मङ्गमितोऽप्यभयंकरः ।।२९।। अर्थ-हे भगवन् ! प्राप भले चलन के चलने वाले हैं किन्तु अपनी बात पर पर्वत की तरह प्रटल रहनेवाले हैं। प्राप यद्यपि सिर्फ विशारूप कपड़ों के धारक दिगम्बर है, फिर भी प्राप मुनिएकपट हैं, बेशकीमती कपड़ों के धारक जैसे प्रतीत होते हैं क्योंकि बिलकुल सरल चित्त हैं । प्राप परिग्रह रहित है, कुछ भी प्रापके पास नहीं है, फिर भी प्राप को लोग क्षमा (सहिष्णुना अथवा भूमि) से युक्त बताते हैं। जो समर सङ्गमित प्रर्यात युद्ध करनेवाला होता है वह भयङ्कर होता है किन्तु प्राप समरस को प्राप्त होकर भी शान्त हो।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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