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प्रथं - उस नगर मे ऐसा कोई प्रादमी नहीं रहता जो कि अपनी सम्पति का उपभोग न कर रहा हो प्रौर वह उपभोग भी ऐसा नहीं होता जिसमें धर्म की भावना न हो प्रपितु लापरवाही से किया जा रहा हो। एवं धर्म का उपयोग भी ऐसा नहीं होता जो कि प्रागे से प्रागे बढ़वारी को न पाकर बीच में ही नष्ट हो जाने वाला हो या गुणों के समागम मे रहित होते हुवे निष्फल हो । शीलान्विता सम्प्रति यत्र नारी शीलं मुमन्तानकुलानुमारि । पित्रोग्नुज्ञामनुवर्तमाना समीक्ष्यते मन्ततिरङ्गजानां | ४ |
प्रथं-जहां की प्रत्येक औरत शीलयुक्त हो होती है कोई भी व्यभिचाररत नहीं होती । शोल भी अपने २ कुलक्रम के धनुसार चलते हुये सिर्फ सन्तान को पैदा करनेवाला होता है और सन्तान वहां की ऐसी होती है जो कि अपने माता पिता की प्राज्ञा का पालन किया करती है ।
अनेरहान्यो मधुपो न चामन्वृक्षोऽपि नाम्नैव पुनः पलाशः । स्वप्नप्रशस्याय समस्ति यत्र लुण्टाकताथो न मनाक परत्र ॥५
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अर्थ- जहां पर भौरे के सिवा और कोई मधुप यानी शहब खाने वाला प्रथवा नशेबाज नहीं और जहां पलाश प्रर्थात् मांस खोर होकर अपने जन्म को निष्फल करने वाला भी प्रौर कोई नहीं पाया जाता अगर है तो वह सिर्फ एक वृक्ष है वह भी नाम मात्र के लिये, एवं लुटेरापन तो प्रपने बोये हुये घनाज को बटोरने के सिवा और किसी भी तरह का कहीं पर भी देखने को भी नहीं मिलता ।