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________________ इसके बाद वह सावधान मन होकर उनमे जलके समान सबको शान्ति देने वाले उत्तम धर्मके व्याख्यान को सुनने लगा। मन्त्रिपीय वहपीनमनाम्मम्नावतव कृप आप्य व नाशं । योगितामनुचकार महात्माऽनः पुनः म्फटभवन्मुगात्मा ।२९ पर्ण-मुनिराज को वारणी को सुनकर उसके मनको बहुत खुशी हुई वह तृप्त होगया। जिसमे कि उसको तृष्णा का नाश होगया जैसा पानी पीने से हो जाया करता है बल्कि पानी से तो जठराग्निजन्य तृषा दूर होती है किन्तु उममे तो उसको मानसिक तृष्णा का सदा के लिये प्रभाव हो या इमलिये उस महापुरुष ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके सन्मार्ग को अपना कर फिर योगिपने को स्वीकार किया। पापगेधिनपमोऽनिगयेन चारणदिमधिगम्य च नेन । योगिराजपदनाऽऽपि पुनीता यम्य विम्तनमा गुणगीना ।३.। प्रयं-उसने दुष्कर्मों को न करने वाला तप किया जिससे कि चारद्धि को प्राप्त होकर वह योगि से पुनीत योगिराज बन गया जिसके कि गुणों का वर्णन बहुत ही बड़े शब्दों में हो सकता है। किश्च काश्चनगिरेः मुगुहाया मास्थितम्य सुमुनरुचिताया। वन्दनार्थममुकम्य कदापि श्रीधगऽऽय यशमश्वधपि ।३१॥ प्रथं-प्रब किसी एक दिन यह योगिराज मुनियों के रहने योग्य कंचना गिरि को गुफामें प्राकर विराजमान हुवा पोर उस को
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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