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________________ __३८ अथ चतर्थ मर्ग: नृपोऽथ नान्याय पर: ममं पुनः म भट्टमित्रं निजगन्नवम्तनः । विवेचनायाह न नीतिमानिनि ददानि वक्त प्रतिवादिन स्थिति ।। प्रपं-गजा ने उन रत्नों को लेकर उन में महत से और एन मिलाकर भमित्र को बुलाया और उममे अपने रत्न पहिचान लेने को कहा कि जो नातिमान पुरुष होते हैं वे दूमरोंको बोल ने लिये कोई भी जगह अपने कार्य में नहीं रहने देते । चमनि जग्राह म भग्निः म्घकानि नान्यानि विवेकवानिनः । पृशन्चनीचरमियान्यदायमिन्यहोवन माम्प्रतमात्मसंयमी ।। प्रषं वर भनि प्रपने रत्नों को खूब पहिचानता या पोर मन्तीगा था इमलिये उमने उनमें में अपने २ रस्न उठा लिये। टोक हो । जो अपने प्रापको वश में रखने वाले होते हैं वे दूसरे के धन को जूठन के समान मानकर टूते तक नहीं है । यही बड़ी बात इतर तीपयतं वणिक्त ज. मवेत्य मन्तुष्टतया महीभुजः । हाद मामीचममान पुननियोगवान श्रष्टिपदे ममस्तु नः ।३ प्रयं-इस प्रकार उम वंदय बालक का सन्तोषयुक्त देख पर राजा के मन में विचार प्राया कि यह कोई एक महा पुरुष है और हम तर मे मनोकर फिर वह बोला कि इस भमित्र को हमारा राज धाममाना जावे ।।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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