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माय विवाह कर लिया एवं वह राजा उसके साथ प्रानन्द पूर्वक
काल बिताने लगा ।
इत्यनेन विरज्याऽऽराज्जिनदीक्षामुपावजन । मेनस्तपस्तेपेऽतिघोरं वहिगन्मतः ||३०||
कि
वयं इस बात का वज्रमेन के दिल पर यह प्रभाव हुवा वह विरक्त होकर जिन दीक्षा ले गया और अन्तरङ्ग से नहीं किन्तु ऊपर से उसने घोर २ तप करना शुरू कर दिया ।
एकदा स्तवक
नगराइ हेरास्थितः । निरीक्ष्य कुपितलक लगुडा दभिगहतः | ३१ |
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प्रयं-यों तप करते २ एक बार वह स्तवकगुच्छ नगर के
बाहर था कर बैठा था कि उसे देख कर क्रोष में भरे हरे लोगों ने उसे लाटो वगरह मे मारना शुरू किया ।
विद्वाय नगरं समस्कन्धोन्धतेजसा ।
स्वयं च नरकं प्राप दग्ध्वान्मानपत्यमौ ॥३२॥
प्रयं हममे क्रोध में प्राकर उस मुनिने प्रपने बायें कन्धे मे निकले हवे तेजस तने से पहले उस मारे नगर को जलाया और बाद मे खुद भी उसी में भम्म होकर नरक गया |
तथैव निरृतिगृहक: मदान्तरात्मन्यनुवद्धशोकः । विराधकः सन्नखिलप्रजाया अवादि वृद्धनरकं मयायात् । ३३ ।
प्रयं-बम इसी प्रकार गृहस्थ ग्रामो भी जो कि प्राजीविका से होन होता है तो वह भी सदा अपने मनमे फिकर के