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________________ ܕ तनोर्वाचोहदोवापि बाह्यांवृषिं समाहरन् । स्वयमन्तर्गतका प्रभावदीपकवानभूत् । २४ | प्रपं --अब उसने शरीर वचन मोर मनको बाह्य प्रवृतिको तो बिलकुल ही रोक लिया, सिर्फ अपने प्राप में मन को दृढ़ता के साथ लगाकर प्रागे से प्रागे उसे धौर भी समुज्ज्वल बनाता हुवा चला गया, इस प्रकार प्रपने निर्मल भावरूपी दीपक को उसने प्राप्त किया । 6 महात्मामुरीकतु संमजन्नन्तरात्मनः योगिराजदशां लेभे परमात्मपथस्थितः | २५ | - प्रयं प्रव महात्मपन को पूरणं प्राप्त करने के लिये अपनी ही प्रात्मा में तल्लीन होते हुये सिर्फ प्रात्म-पथ का पथिक होकर उसने योगिराज अवस्था प्राप्त करली | कोपमाशु पराभृय मनमा कोपकारकः लं विहाय समभृत्समन्तात्स्वन्दलक्षणः | २६ । माननीयोऽपि विश्वस्य सर्वथा मानवर्जितः मूलतोलोभमुन्मूल्य वर्द्धमानकलो भवान |२७| प्रथं - जो कोपकारक होता है वह कोप को कैसे दबा सकता है परंतु उस महात्माने अपने मनके द्वारा अपनी प्रात्मा को सम्भाल कर क्रोध का शीघ्र ही नाश कर दिया। इसी प्रकार जो माननीय यानी मान का भूखा हो वह मान रहित कंसा ? किन्तु वह अभिमान रहित होकर विश्व भरके लिये प्रावरणीय बन चुका
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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