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पूर्ण स्वस्थ एवं कृतकृत्य हो जाता है तो दिव्यज्ञानको प्राप्त होते हये प्रखण्ड सन्तोष को प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म मरणरूप रोग से दूर हो रहता है। इति गुरोरिव गारुडिनोऽप्यहिर्वचनमभ्युपगम्य नृपो बहिः । झगितिकञ्चुक मुख्य मपाकरोद्गरमिवान्तरमप्यधुना स हि । ५०
अर्थ-इसप्रकार गुरुदेव के कहने को सुनकर वह राजा चक्रायुष प्रब अपने कपड़े वगैरह बाहिरी परिग्रह को एवं अपने मन के रागादि कषाय भावों को त्यागकर मुनि बन गया, जैसे कि गारुडी के मन्त्र को सुनकर अपनी कांबली पोर जहर को त्याग कर सर्प बिलकुल सरल हो जाता है।