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________________ १०३ तो भी वह धम्यध्यान नहीं होता क्योंकि जो शरीर को ही प्रात्मा मान रहा है उसका इन्द्रियों को दमन करना प्रादि सब प्रात्मघात रूप ठहरता है, जो कि प्रात्मघात घोर रौद्रध्यान होता है, इत्यादि । जिनाभ्यनुज्ञातनुभागपाय- विपाकसंस्थाननयाय धर्म्यं । ध्यात्वाजिनेोमत्कृतेन जनोऽनुपायान्ननु नाकहर्म्यं । ३० प्रथ - श्री जिन भगवान की ऐसी प्राज्ञा है, हमें उसी के अनुसार चलकर अपने आप का तथा श्रौर लोगों काना भला करते रहना चाहिये इस प्रकार विचार करने का नाम प्राज्ञाश्चिय है । यह संसारी जीव अपने ही किये हुये शुकर्मा कद्वारा किस प्रकार प्रापत्तियों में पड़ता है इत्यादि विचार का नाम प्रपायरिचय होता होता है । जब दुष्कर्मा का उदय होता है तो इस जांब को किस प्रकार से पोड़ित करता है. बड़े २ पदवी धारियों को भी अपनी चपेट में घायल कर दिया करता है, इस प्रकार के विचार की विपाकावचय कहते हैं । जीवादि तत्यों के स्वरूप चिन्तन करने का नाम संस्थानविचय है । इन चारों तरह से अपने उपयोग को सुशीमल करते हुये अपने मन वचन काय को बेटा को तदनुकूल करना धर्मध्यान है जिसके कि द्वारा उपार्जन किये हुये उत्तम पुण्य से यह जीव स्वर्गादिसुख का भागी होता है जैसे कि प्राथम में ठहर कर प्राराम पाया करना है। संयम्य योग परियार्यश्रीपयोगमात्मान्मन आन्मनेह । शुक्लं करोतीदमनन्यवृत्या विराजमानः महमा नृदेहः || ४०
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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