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________________ १०१ बनता है वह थोड़े दिन दुःख देकर शीघ्र निकल जाता है, प्रान्त में सुख हो होता है । ऐकामात्मकृतोपयोगे ध्यानं नंदवानुवदन्ति सन्तः । तदा रौद्रद्वितयं च धर्म्य-शुक्लयं चेति विचारवन्तः ||३४|| अर्थ - प्रात्मा के उपयोग में एकाग्रता का होना, किसी भी एक बात का सहारा पाकर उसमें निश्चलपना प्राजाना ही ध्यान कहलाता है, ऐसा सज्जन लोग कहते प्रा रहे हैं । उस ध्यान के प्रार्श, रौद्र, धर्म्य प्रोर शुक्ल ऐसे चार भेद है, जिनमें मे प्रातं बोर रौद्र ये दो ध्यान तो संसार में भटकाने वाले हैं किन्तु धम्यं एवं शुक्ल ये दो संसार का प्रभाव करने वाले है ऐसा विचारशोलों का कहना है । इष्टोपयोगाय वियुक्तयेऽतोऽनिष्टस्य पीटास निदानहेतोः । आर्त्तं प्रमादस्यवशादुदेति यद्स्यतियग्गतिहेतुनेति । ३५ अर्थ- क्या करू, कंसे काम बने, इस प्रकार शोकातुरता का नाम प्रातध्यान है, वह एक तो भली चीज की प्राप्त करने के लिये होता है, दूसरा बुरी चीज को दूर हटाने के लिये होता है: तीसरा शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा होने पर होता है, प्रोर चोया भविष्य में भी विपत्ति न ग्राकर सम्पत्ति मिले इस विचार को लिये हुये होता है, उनके इष्टवियोग १ श्रनिष्टसंयोग २ पोड़ा चिन्तन ३ श्रौर निदान ८ ये क्रम से नाम है । यह चारों ही प्रकार का प्रातध्यान प्रमाद की तीव्रता से होता है और मुख्यतया इसका कार्य तिर्यग्गति होना है ।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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