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रहस्यवाद : एक परिचय मराठी भाषा में मिस्टिसिज्म के लिए 'गूढ़पाद' या 'गूढगुंजन' जैसे शब्द पाये जाते हैं और बंगाली भाषा में इसके लिए अधिकतर 'मरमियावाद' शब्द का प्रयोग किया गया है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक काल में जब काव्य-प्रवृत्ति के क्षेत्र में छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद जैसे वादों का प्रचलन प्रारम्भ हुआ, तभी सन् १९२० ई० के लगभग रहस्यवाद का भी नामकरण हुआ। इतना स्पष्ट है कि हिन्दी काव्य क्षेत्र में सन् १९२० के पहले रहस्यवाद शब्द का प्रयोग कहीं परिलक्षित नहीं होता। बीसवीं शती के द्वितीय दशक में बंगला और अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव से हिन्दी में छायावाद का उद्भव हआ और प्रारम्भ में छायावाद को ही रहस्यवाद कहा जाने लगा। किन्तु साहित्यिक क्षेत्र में जब छायावाद की आलोचना-प्रत्यालोचना होने लगी, तब सम्भवतः उसी की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप रहस्यवाद का जन्म हुआ। इस प्रकार हिन्दी-साहित्य में रहस्यवाद का प्रयोग आधुनिक युग की देन है।
रहस्यवाद की विविध व्याख्याएं एवं परिभाषाएं
वस्तुतः हिन्दी-साहित्य का रहस्यवाद एक ऐसा नया शब्द है जिसके सम्बन्ध में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों में इसके स्वरूप, अर्थ प्रकार एवं परिभाषा व्याख्या आदि के विषय में भिन्न-भिन्न धारणाएँ रहीं हैं। इसी कारण इसमें विविधरूपता और अव्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। परिणामतः रहस्यवाद की अभी तक कोई समुचित सर्वमान्य और सामान्य परिभाषा स्वीकृत नहीं हुई है। फिर भी, पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों के द्वारा रहस्यवाद को, जिन परिभाषाओं में बांधने का प्रयास किया गया है, उनका संक्षेप में अवलोकन करना समीचीन होगा। ___ मनोवैज्ञानिक आधार पर की गई रहस्यवाद की परिभाषाओं को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है१. डा० प्रहलाद नरहर जोशी : 'मराठी साहित्यांतील मधुराभक्ति'
(पुणे. १९५७ ई०), पृ० १५०-५१ । २. रमा चौधुरी : 'वेदान्त ओ सूफी दर्शन' (कलिकाता, १९४४ ई०),
पृ० १४६, १६४-६५ ।