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आनन्दघन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ब्रज, उर्दू और पंजाबी भाषा के शब्दों का प्रयोग भी इनकी कृतियों में दृष्टिगत होता है । संक्षेप में, इतना ही कह सकते हैं कि जहाँ 'आनन्दघन बहोत्तरी' की भाषा हिन्दी है वहीं 'आनन्दघन चौबीसी' पर गुजराती भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। काव्य-कृतियों का सामान्य परिचय
(१) प्रानन्दघन चौबीसी यह स्तुति साहित्य की एक उत्कृष्ट निधि है। 'आनन्दघन चौबीसी' में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। ये स्तवन गीत हैं जो सगुण भक्ति के परिचायक हैं। इस कृति में ज्ञान की गहनता, भक्ति की महत्ता तथा अध्यात्म की गूढ़ता है। योग और अध्यात्म की रहन्यानृभतियाँ इसमें अभिव्यंजित हई हैं। इस कृति का प्रारम्भ ज्ञान, भक्ति और योग की अनुपम त्रिवेणी से होता है। ये स्तवन-गीत साधक को अकस्मात साधना की गहराई में नहीं ले जाते. अपित क्रमशः उसके उत्तरोत्तर उन्नत सोपान का दिग्दर्शन कराते हैं। वास्तव में भक्ति का सर्वोच्च स्तर इस रचना में हमें देखने को मिलता है। इसमें स्थान-स्थान पर आनन्दघन की आध्यात्मिकता एवं दार्शनिकता का अगाध परिचय प्राप्त होता है। इसकी भाषा का प्रवाह स्वाभाविक और प्रांजल है जिससे यह विदित होता है कि कवि ने कहीं भी खींचतान नहीं की है। यह उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का परिणाम है। आनन्दघन की यह श्रेष्ठ आध्यात्मिक रचना जैन समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसमें वर्णित विषय-वस्तु को अति संक्षेप में निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है
(१) ऋषभजिन-स्तवन-इसमें सोपाधिक और निम्माधिक प्रीति का भेद बताकर सच्ची परमात्म-प्रीति के लिए निष्कपट भाव से आत्मसमर्पण करने को कहा गया है। इसमें 'प्रीति-योग-अनुष्ठान' की मुख्यता वर्णित है।
(२) अजित जिन स्तवन-नमें परमात्न-यथ-दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा प्रदर्शित है । साथ ही परमात्म-पथ में आने वाली अनेक कठिनाइयों का निर्देश है।
(३) सम्भव जिन स्तवन -इसमें परमात्मा की अगम्य, अनुपम सेवा के रहस्य को उद्घाटित करते हुए प्राथमिक भूमिका के रूप में 'अभय', 'अद्वेष' और 'अखेद' की साधना पर प्रकाश डाला गया है।